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रोग-शय्या

rog shayya

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

सीताकांत महापात्र

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और अधिकसीताकांत महापात्र

    सुबह हो चुकी है

    चित्रित तितली के पंखों के कंपन में

    सुनाई पड़ रहा है

    सूर्यदेव का मंत्र-गायन

    पूरी ताक़त इकट्ठी करके

    डेलिया-फूल की हरी डाल, हरे पत्तों ने

    रक्त-से लाल जिस फूल को

    जन्म दिया था

    आज वह काला पड़ चुका है

    झर जाएगा अब;

    माटी का बुलावा प्रतिध्वनित होने लगा है

    उसकी शिरा-प्रशिराओं में

    मानो सचमुच अँधेरे के गहरे पानी में

    पनकौआ-सा डुबकी लगाता

    अभी-अभी आया हूँ मैं किनारे

    आह! कितनी तृप्ति,

    कितना आनंद,

    कितनी क्लांति है!

    आज मुझे कुछ ठीक लग रहा है

    नीले आकाश में किसी असीम दूरी पर

    हुत्-हुत् जलते

    आत्मघाती सूर्य का रुदन सुनाई दे रहा है

    क्यों? क्यों है यह अभिलाषा

    चिरकाल जीवित रहने की?

    क्या इसलिए—दूसरे कमरे में है चूड़ियों की खनक

    नारी की अनभूली वीणा-झंकार?

    यमुना, शिप्रा या चित्रोत्पला?

    सत्, त्रेता या द्वापर?...

    मुँह के सामने ही तो है शांत नीला आकाश

    किस तरह निर्लिप्त वैराग्य से जल उठता है

    हलाहल-सा नीला

    मानो मेरी सत्ता का शुभ्र दावानल!

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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