रवि ठाकुर!

rawi thakur!

नागार्जुन

नागार्जुन

रवि ठाकुर!

नागार्जुन

रुन झुन रुन झुन

सुने थे तुमने

भगवती वीणापाणि शारदा के नूपुर

विश्ववंद्य भारतीय महाकवि ठाकुर!

पाया था अनुपम प्रतिभा का अवदान

यहाँ से, वहाँ से,

जाने कहाँ-कहाँ से,

धन्य तुम पुरुषोत्तम!!

लाँघकर मरु, गिरि, जल और जंगल

युग-युग तक गुँजाते रहेंगे भू-तल

तुम्हारे ये दिव्यगान।

चलता रहेगा अबाधित गति से

दिशा-विदिशा सभी को मुखरित करता हुआ

वृत्तांत के बंकिम पथ पर विचरता हुआ

तुम्हारा यह कालनेमि अद्भुत महायान।

हुए थे पैदा तुम

सुशिक्षित अभिजात धनाढ्य द्विज कुल में

सभी ओर सुख था

सभी ओर सुविधा

परिचर्या के लिए प्रतिपल तत्पर—

सेवक सेविकागण रहते थे घेरे

दिन में, रात में, साँझ में, सबेरे

नहीं खाई होगी अभाव की मार कभी

मालूम पड़ा होगा संसार असार कभी

साधन थे प्रस्तुत, फिर हुए क्यों तुम

अकर्मण्य, आलसी, विलासी, भू-भारमात्र?

अहे कनक-कमनीय गात्र!

कवि के रूप में हो गए विकसित कैसे तुम अचानक?

बाह्य आडंबर उतना भयानक!!

गला क्यों घोट सका

तुम्हारे महामानव का?

कहाँ से मिली तुम्हें इतनी अनुभूतियाँ

पीड़ित मनुष्य के निम्नतम स्तर की?

बात यदि करते तुम केवल ऊपर की—

अपने उच्च वर्ग की, अपने आडंबर की—

तो भी क्या हानि थी!

तुम्हारा गुणगान मैं भला क्या करूँ

उतना देखा है, सुना है उतना

पैदा हुआ था मैं—

दीन-हीन अपठित किसी कृषक-कुल में

रहा हूँ पीता अभाव का आसव ठेठ बचपन से

कवि! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का

हरा हुआ नहीं कि चरने को दौड़ते!!

जीवन गुज़रता प्रतिपल संघर्ष में!!

मुझको भी मिली है प्रतिभा की प्रसादी

मुझसे भी शोभित है प्रकृति का अंचल

पर हुआ मान कभी!

किया अनुमान कभी!

तुंगभद्र! महानाम!—

तुम्हारा यश-सागर असीम लहरा रहा

अग-जग में भू पर!!

तुम्हारी गुरुता का ध्वजपट

फहरा रहा हिमगिरि के ऊपर!!

मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व

रुद्ध है, सीमित है—

आटा-दाल-नमक-लकड़ी के जुगाड़ में!

पत्नी और पुत्र में!

सेठ के हुकुम में!

क़लम ही मेरा हल है, कुदाल है!!

बहुत बुरा हाल है!!!

करूँ मैं किस वर्ग में गिनती अपनी!

लेखक ही बना रहूँ!

पकड़ लूँ वह पेशा—

बाप-दादा करते आए जो हमेशा?

नहीं, नहीं, ऐसा नहीं।

आशीष दो मुझको—मन मेरा स्थिर हो!!

नहीं लौटूँ, चीर चलूँ, कैसा भी तिमिर हो!!

प्रलोभन में पड़ कर बदलूँ नहीं रुख

रहूँ साथ सबके, भोगूँ साथ सुख-दुख।

गुरुदेव मेरे!

दाढ़ी यह तुम्हारी सन-सी सफ़ेद है—

चाचा करीम और तुममें क्या भेद है?

तुम भी शुकनास, वह भी शुकनास

(किंतु तुम श्रीनिवास!)

अभी भी फुर्ती से कपड़ा वह बुनता है

सुनता हूँ, अब तक तुम भी रहे

बुनते किरणों की जाली!!

देखते-देखते समता के सपने

कर गए खतम खेल तुम अपने

सौंप गए हमको सारी विश्वभारती

आज नहीं तो कल उतारेंगे आरती

अभी तो अकिंचन है विकल है, जनगण दुर्लभ है अन्नकण

मैं भी अकिंचन मैं भी विकल हूँ

आवेश में आकर बहुत कुछ कह गया

पितामह, क्षमा करो!

मेरी यह धृष्टता, कटुता, उद्दंडता—

क्षमा करो, पितामह!!

रुन झुन रुन झुन सुने थे तुमने—

भगवती वीणापाणि शारदा के नुपूर!

विश्ववंद्य भारतीय महाकवि ठाकुर!!

स्रोत :
  • पुस्तक : नागार्जुन रचना संचयन (पृष्ठ 70)
  • संपादक : राजेश जोशी
  • रचनाकार : नागार्जुन
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2017

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