एक कोण : मनःस्थिति
काँचे
कमान पर
बौड़ायल-औंधायल
मानवीय देवता,
हमर मनःस्थिति कमौंठ जकाँ फेकल अछि,
स्वयंसँ,
हमर आस्थासँ,
भौगतायल ग्रह-सूत्र
चनकल कुहेस पाट छनकि गेल
भनकि गेल,
साँझ-बोर
आकर्षण
दृष्टि दोष
जखन-तखन
पूर्वापर वयस-बाँस मँहकि गेल,
सोझाँमे
जङला केर फाँकसँ
देखि रहल—
किचिर-किचिर
चुम्बन
आ आलिंगन
—भरम जाल,
स्नेहास्पद अकुलायल ताल-मेल,
मूँहक कुस्वाद तँ भाङठ होयबे करत,
रूप-गँध
वर्णभेद
आगाँ बढ़बे करत,
साध्ये की?
अङस-मङस कयल
जे
एतबा हम बूझि वृत्ति;
तकरे ई प्रायश्चित्त अछि,
तकरे सभ आश्रित अछि:
कोढ़ी किरिन होउक—किन्तु तेँ उदार नीति!
हुहुआइत बहैत जाइत पछवा बसात व्यस्त
घरमे, आङनमे बाहरमे, —चारू कात;
सोझ हम ठाढ़े छी,
हमर बोध तीते अछि,
अभरल जँ स्वत्व किछु
मानब नहि, मानब नहि, मानब नहि...
हऽऽऽम।
खाँहें किछु होइत होउक।
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 100)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रमानन्द रेणु
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
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