बौक परिवेश आ जीवन्त क्षण
समधानल चोटसँ
चौंकल
दिशा-ज्ञान,
अड़ियायल,
बाट घाट छेकि लेल।
सपनौती विद्या
अनठायल-पनठायल,
करियौती जोत सन पाङल पछि पात-पात।
धूआ
क्रमात
बनल आलन
खौंझायल;
हमहूँ उकाठी छी,
नापि जोखि बैसल छी
काल-धुरी
ज्योति दण्ड
फरिछायल ताक नहि,
प्रगघायल आँकुस
परहेज नहि कयल अछि कनिञो।
अङेजि व्याधि
बाकल,
धरखनाह मानिजन
सभ
धाहि लगा बैसल अछि
आकुल सन
टेरत के?
घोरन छै लुधकल—
—हौ कनि कान दहक!
अजनासक मेलासँ कीनि किछु लायल अछि,
लागल पसाह छै,
चारू भर स्याह छै,
बनिञो कऽ अग्रसोची पूरा तबाह छै!
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 99)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रमानन्द रेणु
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.