हमारी मुस्कुराहट : उनकी बैचैनी

hamari muskurathat unki bechaini

पारस अरोड़ा

पारस अरोड़ा

हमारी मुस्कुराहट : उनकी बैचैनी

पारस अरोड़ा

पैरों में पड़ी है

श्रमण धर्म की ज़ंजीरें

और समझदार लोग

चाहते हैं कि हम दौड़ें और

ज़माने की दौड़ में आगे निकल जाएँ।

हमारी भुजाओं को काट कर

वे उम्मीद रखते हैं—

हम भविष्य मे सुंदर मंदिर की सर्जना करें

और वे अपनी टकसाली लक्ष्मी प्रतिमा की

स्थापना करें।

हमारी कनपटी पर वे हमेशा करते हैं

अपने अधिकारी हथौड़े की चोट

और हुक्म देते हैं—

हम उनकी मौज के लिए

मुनाफ़े की योजनाएँ बनाते हुए

पूरे होते रहें और मरते रहें।

कैसे हैं वे अयोग्य निर्बल किंतु धनबल वाले लोग

जो हमारी हत्याएँ कर हमारे मुर्दों से माँग करते हैं—

हम जीवित बलवान

अक्लमंद मनुष्य की भाँति

उनके काम साजें और साजते रहें।

सोने की डोरियों के सहारे

कठपुतलियों की भाँति

शवों को उछाल-उछाल कर

दर्शन करते हैं मदारी बने हुए

वे शवों को नृत्य करवाने वाले।

मौत मार खाकर भी

कठपुतलियाँ बनने के बाद भी

हमारे चेहरों पर पसरी मुस्कुराहट

लोप नहीं होगी, जिसको देखकर

उनके दिन तो क्या? रात भी नहीं कटेगी।

बेचैनी बेचारी बढ़ती है, पर घटती नहीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : सदानीरा
  • संपादक : अविनाश मिश्र
  • रचनाकार : पारस अरोड़ा
  • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

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