रेलवे स्टेशन का पुल

railway station ka pul

कुलदीप कुमार

कुलदीप कुमार

रेलवे स्टेशन का पुल

कुलदीप कुमार

मुझे उससे बात करनी है

बेहद ज़रूरी बात

इसीलिए तो यहाँ आया हूँ

रेलवे स्टेशन के इस पुल पर

हम रोज़ शाम को हवाख़ोरी के लिए आया करते थे

किशोर थे हम

और थे एकदम बेफ़िक्र

किशोरों की तरह

रेलगाड़ियों को देखते रहते थे

और सोचते थे

किसी दिन ये हमें भी कहीं पहुँचाएँगी

आज तो वह सब कुछ सपना लगता है

यह शाम भी तो सपना ही है

जिससे बात करनी है वह तो मेरे साथ-साथ ही आया है

उसके साथ तो कहीं भी बात हो सकती थी

यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी

आज भी रेलगाड़ियाँ आ-जा रही हैं

पर पुल पर खड़े-खड़े लग ही नहीं रहा

कि पैंतालीस साल बाद यहाँ आया हूँ

लग रहा है

तब से यहीं तो खड़ा हूँ

बिना हिले-डुले

वह अचानक चला गया

एक गाड़ी को दौड़ कर पकड़ लिया था उसने

जो बोल रहा था वह वाक्य भी

बीच ही में छोड़ दिया था

‘शास्त्री, मैं अभी आया’

कह कर चला गया था दौड़ता हुआ

मैं अभी तक उसके इतंज़ार में हूँ

हालाँकि मुझे अच्छी तरह मालूम है

इस तरह से गाड़ी पकड़कर छूमंतर हो जाने वाले

कभी वापस नहीं आते

अपना अधूरा वाक्य पूरा करने

वह ज़रूरी बात कहने

जिसे करने मैं आज यहाँ चला आया

इस पुल पर

जिस पर से होकर हज़ारों मुसाफ़िर रोज़ गुज़रते हैं

लेकिन

जो किसी से किसी को नहीं जोड़ता

एक शाम को दूसरी शाम से भी नहीं

स्रोत :
  • रचनाकार : कुलदीप कुमार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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