पुल वज़ीराबाद

pul vazirabad

मनोज मल्हार

मनोज मल्हार

पुल वज़ीराबाद

मनोज मल्हार

अँधेरे के आग़ोश में रहता है

यमुना का पानी और रेतीला विस्तार

एकाध बार

चंचल जल तरंगें

चंद्र किरणों से कर साँठ-गाँठ

चमचमा उठती हैं

अँधेरे में

कितना पानी बह चुका

...कोई नहीं जानता।

हवाओं में

अफ़वाह है कि

मरने के बाद तमाम आत्माएँ

यमुना के काले जल में

जलक्रीड़ा करती हैं

उत्सव ख़ूब जमता है

नृत्य होते हैं और\संगीता की मारी हुई तान गूँजती है

बहुत दूर से आती

गुरूद्वारे की सफ़ेद रोश्ने की परछाई

नहीं दिखा पाती

इंसानी आँखों को

दुर्घटना में मरी

मार दी गई बलात्कृत आत्माएँ

यह झूठ नहीं है

सच! उतना ही

जितना यह कि शहर आज बम फटे हैं

गोलियाँ चली हैं और

आत्महत्या वाली सूची में

सुबह मेरा नाम नहीं होगा!

हक़ीक़त यह है कि

पुल का हर हिस्सा

सुबह और शाम

गुज़रने वालों के लहू से रंगा है

पुल की हर डीअर मारी हुई इच्छाओं

सूनी आँखों

इंसानी टुकड़ों पर है टिकी।

सुबह और शाम

गुज़रने वाला हर एक

और फिंचता है!

और निचुड़ता है!

और सूखता है!

इस तरह ज़िंदा है

पुल वज़ीराबाद!

मैं

ठहरी बसों की क़तार

कर पार

आगे बढ़ता हूँ

नृत्यरत आत्माओं की याद हो आती है

आत्महत्या को उद्धत लोग

घसीट लेना चाहते हैं

मुझे भी...

कोई है

जो कानों में पिघला मंत्र डालता है

...मर जाओ

सपनों को मार डालो

सपना कुछ नहीं

सिर्फ़ गहराते अँधेरे का आभास है

कुछ नहीं कर पाओगे तुम

कुछ नहीं कर पाएगा कोई...

सब के सब

इतिहास के गड्ढों में फँसे हैं

गाँधी! तिलक! भगत सिंह!

विचार कहीं नहीं हैं!

है सिर्फ़ बम और बंदूकें

इन्हीं की भाषा है कारगर

...और जिस सुबह की लाली

तुम देखना चाहते हो

बम और बंदूकों का धुआँ

उसे सात-सात समुद्रों के नीचे दबा चुका है...

इनकार करने पर

गाल पर पड़ते हैं तमाचे!

अदृश्य शक्ति कोई

धकेलना चाहती है

अँधेरे में नृत्यरत आत्माओं के बीच!

दरअसल

वे आत्माएँ नहीं

मरी हुई इच्छाओं का

पाताल छूता दलदल है

ढोंग का कचड़ा है

और सभ्यता की गर्त है...

हर शाम

बाईपास से ससरती है

रोशनियों की कतारें

बस्तियाँ आबाद हो उठती हैं

बसें रुक जाते हैं

और

अँधेरे में

बहता जाता जमुना का जल

रोज़ ही

उलझता

अधनुचा

अकुशल...मैं!

स्रोत :
  • रचनाकार : मनोज मल्हार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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