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प्रिय केदार!

priy kedar!

गौरव सिंह

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गौरव सिंह

प्रिय केदार!

गौरव सिंह

और अधिकगौरव सिंह

    ध्वनियों के विराट संसार से

    हमने उधार ली है भाषा

    आकाशगंगाओं की गति से लिया है चलना

    किसी जीवाश्म के गर्भ से पाया है जीवन

    पत्थरों के अनायास घर्षण से मिल गई आग

    धोखे से छिटक गए किसी लवण से मिला स्वाद

    बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु से पाया है जीवन का अर्थ

    प्रेमासक्त क्रौंच की मृत्यु से मिली है सृष्टि की पहली कविता…!

    जब भी मेरे गाँव में बनती है सड़क

    समकोण पर कटी हड़प्पा की सड़कों में होती है हरकत

    जब भी घर में पकना होता है भोजन

    माँ आदिम आग के ढ़ेर से उधार लाती हैं आग

    पिता ने जब जाने दिया था मुझे शहर

    रोती थीं घर की अलमारी में रखी मानस की चौपाइयाँ

    पति के लिए बोझ ढ़ोती एक मज़दूरन का पसीना

    फ़रहाद की उसी अधूरी रह गई दूध की नहर में गिरता है!

    प्रिय केदार!

    आज कुछ लिखते हुए

    मैंने महसूस की है आपकी बात...

    कि कैसे घटित हुई थी वो अप्रत्याशित घटना…?

    जब तुमने उठाया था किसी एक शब्द को

    और पिछली सदी का समूचा वाक्य-विन्यास विचलित हो उठा था…।

    स्रोत :
    • रचनाकार : गौरव सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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