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नदियाँ

nadiyan

चेस्लाव मीलोष

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और अधिकचेस्लाव मीलोष

     

    नदियों!
    विभिन्न नामों से मैंने सिर्फ़ तुम्हारा ही गुणगान किया है

    तुम दूध और शहद और प्रेम और मृत्यु और नृत्य हो

    अदृश्य खोह के झरने से, काई चिपकी चट्टानों से रिसती

    जहाँ एक देवी घास के मैदान में साफ़ दिखाई देते प्रवाह में
    घड़े से ताज़ा जल उँडेलती है
    जहाँ कल-कल ध्वनि करते हैं भूमिगत सोते

    आरंभ होती है तुम्हारी और मेरी प्रजाति और विस्मय और तीव्र गति

    निर्वसन, मैंने सूर्य के सम्मुख अपना चेहरा अनावृत किया
    बमुश्किल तैरते हुए—

    बलूत के जंगलों, खेतों, देवदारु के वन से गुज़रते

    हर मोड़ के इर्द-गिर्द पृथ्वी की प्रतिज्ञा थी

    देहाती धुआँ, उनींदे चरवाहे, रेतीले कगार पर अबाबीलों की उड़ानें

    क़दम-दर-क़दम प्रवेश किया मैंने तुम्हारे जल में

    और जल-प्रवाह मेरे घुटनों तक आ गया उस ख़ामोशी में

    यह रहा जब तक मैंने आत्मसमर्पण नहीं किया और मैं प्रवाह के साथ
    और मैं तैरने लगा एक विजयी दुपहर के विशाल चमकते आकाश में

    मध्य-ग्रीष्म रात्रि के प्रारंभ में मैं तुम्हारे किनारे पर था

    जब पूरा चाँद निकलता है और चुंबन-क्रिया में मिलते हैं होंठ से होंठ

    मैं अपने भीतर, पहले की तरह, सुनता हूँ नाव से टकराते थपेड़ों की आवाज़

    और वह फुसफुसाहट, जो मुझे गले से लगाने और सांत्वना के लिए बुलाती है

    हम बजती घंटियों की आवाज़ के साथ सारे जलमग्न शहरों में नीचे चले जाते हैं

    भुला दिए गए, हमारा स्वागत करती हैं मृतकों की प्रार्थनाएँ

    जबकि तुम्हारा अंतहीन प्रवाह निरंतर आगे और आगे ले जाता है

    बाक़ी और न कुछ है, और न ही था, सिर्फ़ क्षण ही शाश्वत है

                                           
    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 35)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : चेस्लाव मीलोष
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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