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पीयूषी धार

piyushi dhaar

जगदीश चतुर्वेदी

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जगदीश चतुर्वेदी

पीयूषी धार

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    लाल रेती के बग़ूले

    तौर पर हैं काँस फूले

    काइयों पर भिनभिनाती मक्खियों-सा,

    दिल बड़ा बासी मुझे मालूम देता!

    दूर—

    दक्षिण देश से आती पवन

    रस, रूप की प्यासी;

    ख़ुद लिए है जलन

    दे जाती धरणि को

    खीझ, उमसन,

    घुटन-सी

    दारुण उदासी!

    सोचता हूँ—

    ये पिपासा से भरी

    सूखी बदरिया

    तब बनेगी आर्द्र,

    कोमल,

    मदिर, रसवंती

    अब कि जा छिप जाएगी

    ये वक्ष में,

    हिमचल शिखर के

    पूर्ण आलिंगन इसे मिल पाएँगे

    सामीप्य प्रेमी का, पुरुष का पाएगी!

    तब ये सूखी रहेगी,

    प्रीत की संजीवनी को घोल

    सरि को, उदधि को

    सूखते वन को

    जुते हर खेत को—

    जन को

    लुटाएगी नयन का नीर,

    स्नेहिल धार—

    पीयूषी!

    स्रोत :
    • पुस्तक : पूर्वराग (पृष्ठ 64)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राजेश प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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