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पिता

pita

उदयन वाजपेयी

अन्य

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और अधिकउदयन वाजपेयी

    पिता देर रात दरवाज़े पर खड़े हैं। मैं नींद में चलता दरवाज़ा खोलता हूँ। पीछे कहीं

    माँ के होने की सरसराहट है। उसके भी पीछे बादलों की ओट में वह तितर-बितर

    धागों की तरह फैली है। वे मेरे सिर पर वैसे ही हाथ फेरते हैं, जैसे मरने के पहले

    फेरते थे। मैं उन्हें देख रो पड़ता हूँ, ‘काका मैं तुम्हें तब भी नहीं बचा पाया और अब

    अपनी इन ढेरों कविताओं में भी मैं हर बार उसी तरह विफल हो जाता हूँ।’

    कहीं दूर से माँ की सरसराहट मेरे बहुत क़रीब आती है और मेरी आत्मा पर छाया

    की तरह फैलने लगती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पागल गणितज्ञ की कविताएँ (पृष्ठ 118)
    • रचनाकार : उदयन वाजपेयी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2005

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