पिता और नदी

pita aur nadi

मनीष कुमार यादव

मनीष कुमार यादव

पिता और नदी

मनीष कुमार यादव

पिता एक अशेष आलिंगन हैं

जिनकी ओट में

मैं अपनी असमर्थता छिपाए बैठा रहा

एक-चौथाई उम्र

पिता नदी में देखते हुए

मेरे भविष्य के बारे में सोचते हैं

पर मैं बस नदी की

अठखेलियाँ ही देख पाता हूँ

पिता लगभग नदी होते हैं

नदी को देखते हुए

नदी हुआ जा सकता है

पर पिता को देखते हुए

पिता हो पाना लगभग असंभव है

लगभग असंभावनाओं ने घेर रखा है मुझे

मैं असंभावनाओं का समुच्चय हूँ

या अपने पिता जैसा हो पाने के

अंतरद्वंद्वों का अतिरेक?

पिता कहते थे—

''प्रौढ़ नदियाँ ज़्यादा मिट्टी काटती हैं

और परिमार्जन करके कछार बनाती हैं''

पुल बन जाने से सबसे ज़्यादा उदासी

नावों को हुई

और नदियों का पानी लौट जाने पर

कछारों को

नदियों के सूखने का एक मौसम होता है

और उफान का भी

पिता एक-चौथाई उम्र तक रहे

और तीन-चौथाई रहीं उनकी स्मृतियाँ

स्मृतियाँ जब बहुत कचोटतीं

तब बुरा स्वप्न लगने लगतीं

लेकिन बादल बनकर बरसने पर भी

बारिश नहीं लगतीं

मैं एक काटी गई उम्र हूँ

जिसे नदी द्वारा काटी गई

मिट्टी का पर्याय

हो जाना चाहिए था!

स्रोत :
  • रचनाकार : मनीष कुमार यादव
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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