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फुलकारी

phulkari

ईश्वर दयाल गौड़

अन्य

अन्य

लोक कला का मन प्राण

फुलकारी,

सुवासित,

नीम के पेड़ तले

चरख़ा कातती

रंगीन नालों की बुनाई करती

सूत के लच्छे बनाती-सुखाती

बाल बाँधती, बेर और जामुनें खाती

चनों के दानें चबाती

शकुन-भरे रंगों में लिपटी

अपनी धरती के गीत गाती

कामनाओं, इच्छाओं की यात्रा पर निकली

एक चमकीली लड़की का नाम था

जिस जैसा अन्य कोई रूप-रंग नहीं था

वह बाग़...

तिल, पत्तरा

घूँघट बाग़ जैसी ही

फुलकारी की सहेलियाँ थीं

लेकिन फुलकारी तो फुलकारी ही थी।

कभी ईरान में मेवे खाती

इसी सुरांगल-सुहावनी लड़की का नाम फुलकारी था

बुज़ुर्ग कहा करते

ये मध्य एशिया के ख़ानाबदोश

जट्टों और गूजरों की बेटी

चिनाब में नहाती, सिंध, राबी, सतलुज, ब्यास के

तटों पर खेलती

दोआबे की अंबियाँ चूसती

टिब्बों पर उछलती

मालवे के काले जंगलों की आत्मा थी

फुलकारी से इसका नाम फुलकारी

ख़ूब मक़बूल हुआ

और लोकगीत बन गया

जो प्यार, उमंग, स्नेह, खैर, दुआ और

आमीन के स्वरों पर थिरकता था।

फुलकारी के जन्म के साथ

संशय और सपने पैदा होते

फुलकारी की माँ तीनों को पालती

पोषण करती इनका, अच्छा-सा दिन देखकर

शकुन बेला मानकर

फुलकारी संशय और सपनों

तीनों को निकालना-संवारना शुरू कर देती

बिटिया के साथ ही उन्हें बड़ा होना था

एक साथ तीनों के तोप भरते ही

गुलाबी हाथ

शाम तक थककर तांबई हो जाते

और फिर करें क़सीदे की विरासत

पांडू की कच्ची दीवारों-सी होती कैल को

बड़े शगुन और रस्मों के साथ

सौंप दी जाती थी

गाय के गोबर पर मिट्टी का लेप देकर

घर का फ़र्श स्वच्छ किया जाता।

युवतियाँ गीत गातीं

गुड़ की भेली तोड़कर बाँट दी जाती

तब कहीं सयाने-सुघड़ हाथ

पहला तोपा ख़ुद भरकर

फुलकारी को फुलकारी के हाथ में

सौंप देते।

धीरज और सहजता पाँव थे फुलकारी के

फुलकारी काढ़ते, संवारते, निकालते, बनाते

साँसों की फुलकारी

अपनी ज़िंदगी के तोपों में

हो जाती व्यस्त

बरसों की तपस्या के बाद

फुलकारी अपने रूप में स्वाभिमानी-सी

हो जाती है, इसपर निकाले बैले और चित्र आदि

सपनीली लड़की के रंग-रूप,

सूझ-बूझ कल्पना की उड़ान में

मौलिकता के चश्मदीद गवाह होते थे।

फ़ीते, फुटे, पेंसिल या चाक के बिना

फुलकारी के नमूनों में बेहद सहजता, सौंदर्य होते

सुंदर लकीरें निकालते वह बेटी होती

मूलत: यह समानता

रंगीन ग़ज़ल की एकसारता

चूँकि सहजता भी तो साँसों का ही दूसरा नाम है।

मन की गहरी तरंगें अनेक गीत

कभी बाग़, कभी फूल बनकर

फुलकारी की फुलवाड़ी में हज़ करने वाले

फुलकारी के सीने में

चहचहाते कीकरों के पीले फूल

कपास की चाँदी-सी कलियाँ

गेहूँ की सुनहरी बालियाँ

बेअंत सूझ और सहजता के साथ

फुलकारी को सिजदा करने,

पंक्तिबद्ध रुक जाते असंख्य,

तरह-तरह की गोल-तिकोनी

और चौरस, बिंदियाँ इसके किरमची माथे को सजाती।

कंघी और शीशा भी इसे सँवारने के लिए

किसी के मजीठे द्वार पर हाज़िर होते

पीपल पत्तियाँ, बुंदे, झुमके, असंख्य अलंकार

छल्ले, फुलकारी को सजाने इसके पास बैठते

तोते, मोर, हाथी, साँप, शेर

सबके साथ फुलकारी की दोस्ती थी

अपनी साँसों की महक से सबको बाँधती

कोई इसके बाग़ से जाने का नाम लेता

सब इसकी छाया में खेलते थे एक साथ।

चाँद-सितारे आहिस्ता-आहिस्ता

इसके चमकते, फूलों पर

आकाश से उतरकर बैठते।

लोमड़ी का सजा हुआ दिल्ली दरवाज़ा

इसकी शिल्पकला को सलाम करता

तैनात रहता था

किसी एक रंग की पगली का नाम

फुलकारी नहीं था

यह तो रंग-बिरंगे सूटों में शौक़ीन मटकती नारी

सतरंगी पेंग के साथ

आकाश जितनी ऊँची पींग झुलाती

हँसमुख, दर्शनीय, लहलहाती पानी से भरी गगरी

पाँच दरियाओं की युवती-सी फुलकारी

सौंदर्य की चरम सीमा

अपने रेशमी होंठों को रेशमी कल्फ़ के साथ

सजाते-सजाते चालाक शरारत से

परिचित हो जाती है।

फुलकारी नहीं बच सकी नज़र लगने से

अनेक बार उजड़ा इसका सुगंधों से सजा बाग़

पाँच दरियाओं की लाडली, तार-तार भी हुई

बहुत से सैय्यादों ने इसके बग़ीचे में

कलोल करती कोयलों को क़ैद किया

नोंचते रहे

और कुछेक के तो

पंख ही काट दिए

पतझड़ में इस चमन पर डेरे डाले, घेरे डाले

पत्रहीन, सिर से नंगी अपमानित फुलकारी

शैतान राहों ने इसकी चाल छीन ली।

रंग बँट गए फुलकारी के

अजनबी लोग इसके रंगों के संग

होली खेलने लगे

रंगों के सौदागर इसे

सजाने लगे

इसकी सुंदर रंगीन देह को

सांप्रदायिक तेज़ाब

चूमने लगा।

रंग ही तो फुलकारी की साँस हैं

यह तो घूमती, भागती, हरकत में ही

रंगों की शह पर

मरने को किसका मन करता है

रंगीन संसार छोड़ना ही कौन चाहता है।

फिर फुलकारी तो स्वयं ही रंगों की

पिटारी थी।

यह होशियार थी

धीरे-धीरे

अपने रंगों को धूमिल होने से बचाती

तेज़ाब चूमने से डरती है।

ख़ुद को

अपनी माँ के संदूक़ में छिपा लेती है।

फिर लंबा समय बीत गया

फुलकारी को नींद गई

एक दिन आँख खुली,

फुलकारी ने

संदूक़ की सीमाओं से बाहर देखा

सब कुछ बदल गया था।

रंग, सुई, धागा और बहुत कुछ

आँगन में नहीं

सब संदूक़ में क़ैद थे

सामने दीवार पर उसकी

अपनी ही

तस्वीर टँगी थी

उसके गले में फूलों की माला लटक रही थी।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 535)
  • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2014

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