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फुलझड़ी देवी

phuljhaDi dewi

मलयज

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फुलझड़ी देवी

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    क्या फुलझड़ी देवी के गाँव से

    मैं अपनी कविता वापस ला सकूँगा?

    एक छोटी-सी कोठरी थी

    नीची दीवारें, खप्पर की छत, मिट्टी के धुएँ रोशनदान

    धूप भी उनसे आती थी ऊँचे-नीचे फ़र्श पर

    कभी वहीं बैठी फुलझड़ी देवी

    याददाश्त के एक सुबह-लिपटे टुकड़े को

    दाँत से पकड़े रहती थी

    बाहर गोरू

    भीतर सास जी छिन-छिन आकर

    देख जातीं

    कभी छुटकी बिटिया को ही बीच में बिठा जातीं

    क्या वही था पहला शब्द उस गाँव में?

    मर्द की आहट में दृग डुलाती

    धुएँ के घोंसले-बाल उघारे

    खिल खिल करती फुलझड़ी देवी

    गाँव के बाहर मीठे पानी का कुआँ

    उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती थी

    कंकड़ी की चुप बन कर

    हँसी में हिलते हुए बालों की लहरियाँ बनाती कहती

    छुआ तो मर जाऊँगी आँख में

    साँच की ओट ले

    परात भर आटा दोनों हाथों से सानती

    धुएँवाली धूप में मुझे लौटना होता था जहाँ से

    ख़ाली हाथ।

    एक बार गोद में अँधेरा हो गया

    फुलझड़ी की उँगलियों से थोड़ा-सा

    पुँछ आया था अँधेरा दोनों ओर

    भय एक कपड़ा था

    जिसे पकड़े थी फुलझड़ी

    डरावने धब्बे

    छुटकी की जगह एक गठरी थी

    अपने ही हाथों सौंप दी थी

    धूपवाली कोठरी में

    गाँव के बाहर

    ले के चले गए थे वे

    कविता की ठंडी देह।

    फुलझड़ी में हँसी तब भी बाक़ी थी

    आँखें रिस कर कहती थीं

    उस वक़्त मैंने क्या कुछ पूछा था?

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 18)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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