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पीठ

peeth

रमेश प्रजापति

अन्य

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और अधिकरमेश प्रजापति

    सूरज के पीठ दिखाते ही

    साँवला पड़ गया पूरब का चेहरा

    समुद्र में तैरने लगे प्रार्थनाओं के फूल

    दिन की झुकते ही पीठ

    घर का बोझ ढोते-ढोते

    संघ्या की खाट पर निढ़ाल हो गई पिता की देह

    झुनिया की पीठ पर उभर गई

    भेड़िए के नुकीलें पंजों की खरोचें

    रामदुलारी की पीठ दोहरी हो गई खाँसते-खाँसते

    सुक्खों की पीठ पर टिका दुःख का आसमान

    रफ़ीकन की पीठ पर मचलते सपने

    अब स्त्री पीठ के बल पर नहीं बल्कि पुरूष वर्चस्व के समक्ष

    हवा में लहराती मुट्ठियों से तय करती है अपना भविष्य

    और अँधेरे में खिल-खिला उठते हैं फूल

    ये ऐसा समय है जिसमें

    पीठ पीछे होते हैं हमारे विरूद्ध फैसले

    पीठ पीछे राग अलापते है अवसरवादी लोग

    पीठ पीछे उभरे दिखाई नहीं देते वक़्त की नीले निशान

    पीठ पीछे ही गुल खिलाता है आदमी

    पहाड़ की पीठ पर खिलते हैं रंग-बिरंगे फूल

    हमारी पीठ पर चिपके लहू से तरबतर पन्ने

    गाँव की धूप, हवा पानी से बिछुड़ा

    महानगर की छत पर पैर रखने भर की जगह ढूँढ़ता

    देख रहा हूँ सूरज का दबे पाँव आना-जाना

    सहमे-सहमे साँझ का ऐसे उतरना

    जैसे बेटे के बिछोह में झूकी पीठवाली बूढ़ी माँ

    लड़खड़ाती उतरती है टूटी खटिया से

    इतिहास के पन्ने उलटते हुए

    आज भी चुभते हैं आत्मा में

    बेरहम सदियों के निशान

    किसान-मज़दूर की पीठ पर उभरे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश प्रजापति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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