प्राचीन योध-स्मृति

prachin yodh smriti

अप्पलस्वामी पुरिपंडा

अप्पलस्वामी पुरिपंडा

प्राचीन योध-स्मृति

अप्पलस्वामी पुरिपंडा

आज सकल दिशाओं में स्वर्णिल प्रकाश की रश्मियाँ

नित्य नूतन वैभव के साथ प्रसारित है

और मधुर मंगल गगन-चुंबी विजय की शंख-ध्वनियाँ सब

दिशाओं को मुखरित करती है।

सब गाँवों और नगरों में नंदन वन के दिव्य कुसुमों की

वर्षा हो रही है।

वह हिमालय के कांचन-गंगा नामक शिखर पर

शांति, सत्य और धर्म का समन्वयकारी

एवं एशिया के नव भाग्योदय का प्रतीक,

भारत का झंडा फहरा रहा है।

जिनके नेत्रों से दीनता दूर हुई

और विजय की आनंद ज्योतियाँ निकल रही हैं,

भारत माता के वे स्वतंत्रता के पुत्र

अपने हाथों में नैवेद्य लेकर आए हैं।

जाने किस पुरातन शाप से

अथवा युगों के पापों के वशीभूत होकर

विश्ववंद्य भारतीयों ने अब तक

वस्त्र और अन्न के मुखापेक्षी होकर दिन बिताए हैं।

समुन्नत भारत जाति, जो आज दीन-दशाग्रस्त है,

मातृ-पूजा के पवित्र संकल्प से दीक्षित हो

शिथिल कल्याण मंडपों में आरती उतरवा लेगी।

हमारी चिरंतन भाग्य-राशियाँ

इस मंगल समय पर विकसित होकर शोभित होती हैं।

आज स्मृति-पटल पर विगत स्वतंत्रता-संग्राम की बातें

एक-एक करके सजीव रूप में

चलचित्रों के समान दृष्टिगोचर हो रही है।

निद्रित भारत जाति को चेतना प्रदान करके जगाने वाले

महान् वैतालिक नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले,

बाल गंगाधर तिलक ये ही हैं

ये लाला लाजपतराय हैं

ये मोतीलाल नेहरू हैं

चित्तरंजन यही हैं

यही देश-भक्त कोडा-वेंकटप्पटया जी हैं

ये ही नेताजी सुभाषचंद्र बसु है। ये सब स्वातंत्र्य संग्राम के

ऐसे वीर सैनिक हैं,

जिन्होनें कभी क़दम पीछे नहीं हटाए।

पंजाब में डायर ने भारत जाति पर

जो घोर अत्याचार किए थे, उनका स्मरण करते ही

हृदय काँप उठता है और ये अपमान अमिट रहेंगे।

यह कहाँ का रथ-घोष है,

जो हमारे हृदयों में युद्ध का नवोत्साह

पैदा कर रहा है।

यह कहाँ के अश्वों की हिनहिनाहट है,

जिसे सुनकर सुप्त कंकाल भी तांडव करने लगते हैं।

यह कहाँ का अद्भुत तरकस है,

जिसमें से अक्षय रूप से बाणों का संघात निकल रहा है।

अजेय हो शत्रुओं को अपने वश में करने में दक्ष है

सत्याग्रह का यह रथ!

कोई भी अभिमानी इसे रोक नहीं सकता

यह ऐसा अभ्युदयगामी रथ है,

जो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता।

यह असहयोग आंदोलन का रण-गीत है

यह शासन-बहिष्कार की हुँकार है

यह विदेशी वस्त्रों का होलिका-दहन है

यह चरखे की संक्रमण क्रांति है

यह सूत्र-यज्ञ की वैज्ञानिक ज्योति है

यह त्याग का उन्मीलन है

यही सात्विक निरोध और अहिंसा का व्रत है

यह अनासक्ति योग की दीक्षा है

यह भारत जाति का गौरवप्रद तिरंगा झंडा है,

जो दिग्विजय के लिए आकाश में फहरा रहा है

और जिसका कभी पतन नहीं होगा।

हे माते पताक लक्ष्मि! तुमने भारत जाति की अमिट प्रतिष्ठा को

विभिन्न महाद्वीपों में फैलाया है

तुम सतत दर्शनीया हो

तुम्हें हम बारबार प्रणाम करते हैं।

हे माँ! तुम्हारे शीतल अंचल की छाया में

लाखों शांति-सैनिकों ने अपनी माता को दासता की

बेड़ियोंसे छुड़ाने के लिए

निज प्राणों की बलि दे दी।

हे मातृरूपी पताक लक्ष्मि!

देश-देशांतरों और सागर-तटों पर

आज तुम्हारे दर्शन हो रहे हैं

तुम सर्व देशों की रानी बनने योग्य हो

तुम्हे बारंबार नमस्कार है।

ये सत्याग्रही शूरवीर हैं

चाहे कोई निरंकुश पालक इनको बंधन में डाल दे,

फिर भी ये इन बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र होने वाले वीर सैनिक हैं

इन्होनें तो चिर परतंत्र शृंखलाओं को तोड़ डालने के लिए

अपने जीवन-कुसुमों का बलिदान कर दिया है।

इनके सिरों पर बरसने वाली शतघ्नियाँ भी

इनके लिए पुष्प वर्षा के सदृश हैं

इनके गलों में पड़ने वाली फाँसी की रस्सियाँ भी पुष्प-मालाएँ हैं

भारत रूपी पुण्य आश्रम में ये तरुण तपस्वी वीर हैं,

जो कष्टों को अहोभाग्य मान लेते हैं

श्री शोभित इन योद्धाओं के सिर पर मंगलमयी पुष्प-वर्षा अवश्य हो

ये बापूजी हैं—पोपली हँसी के तपस्वी—

ये भारत के स्वातंत्र्य-संग्राम के

सर्वसेनानी तथा सत्याग्रह के प्रणेता हैं

इन्होनें सारी दुनिया के रक्षक के रूप में कीर्ति पाई।

ईश्वर के यह पवित्र अवतार शत्रुओं को भी दुःख नहीं पहुँचाते

अत्याचारियों पर भी द्वेष नहीं रखते

पर-पीड़न से कातर हो उठते हैं

प्रेम ही इनका एक मात्र अचूक अस्त्र है

इन्होनें कभी किसी का लोहा नहीं माना

इनके चरणों में हमारा श्रद्धापूर्ण नमस्कार है

यह दांडी की पवित्र बेला है,

जहाँ महात्मा जी ने प्रतिज्ञा की थी कि

या तो कंठ-सीमा में विजय की पुष्प माला अलंकृत होगी

या मृत शरीर सागर में तैरने लगेगा

देश-देशांतरों में मिष्टान्न का वितरण करते हुए

जिस भारत देश का हाथ ऊपर रहा था,

वह आज अपने सागर के तट पर के क्षेत्र-खंडों में

लवण सत्याग्रह कर रहा है।

यह श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान है,

जहाँ असूर्यम्पश्य सुकुमारजन

मधुर मद हास से लसित वदनों से

कठोर दंड का भोग कर रहे हैं।

जब विप्लव की दावाग्नि ने अपनी सहस्र जिह्वाओं को फैलाकर

पृथ्वी और गगन को घेर लिया

तब देवदत्त की यह भीषण ध्वनि सुनाई पड़ी

कि श्वेतजनों! भारत छोड़ जाओ!

आज विजय पर्व है। इसके लिए हमारी कब की प्रतीक्षा है।

हे माते! तुम्हारा असंस्कृत केश-जाल

आज पुष्पालंकृत है। दोनों संध्याएँ

माता के चरणों के लाक्षारस से अरुणारुण हो रही हैं।

मेरी माँ का सुदर तिलक

आज दुर्निरीक्ष्य है, जो करोड़ों दिव्य

मणियों के समान तथा करोड़ो सूर्यो के उदय के समान सुशोभित है

प्रायः आज हमारी माता तीनों लोकों का शासन करने वाली है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 369)
  • रचनाकार : अप्पलस्वामी पुरिपंडा
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY