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परवाह

parwah

शैलजा पाठक

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और अधिकशैलजा पाठक

    जब मैं फ़ेल हुई थी

    मुझे किसी ने नहीं गले लगाकर बोला कि कोई बात नहीं

    मैं देर तक दीवार के पास खड़ी रही और गली में खेलने लगी

    मुझे कम परवाह थी

    जब मुझे राह चलते किसी लड़के ने छेड़ा था

    तब किसी ने सुनकर यह नहीं बोला कि तुम्हें भी बोलना चाहिए

    हम हैं न! मजाल है कोई तुझे कुछ कह दे

    मैं घबरा कर देर तक बिल्डिंग के पीछे छुपी रो रही थी

    मैंने परवाह नहीं की

    जब पहले दिन के पीरियड से शर्मसार मैं ज़मीन में धँस रही थी

    तब किसी ने साफ़-साफ़ बात नहीं समझाई कि ये नॉर्मल है

    मैं पाँच एबनॉर्मल दिनों से ख़ौफ़ खाने लगी

    मुझे लगा परवाह करनी चाहिए थी

    शहर बदलने के बाद मैं चुप रहने लगी

    मैं पूछने पर भी भूलने लगी शादी-ब्याह का गाना

    मेरी हँसी की उजास खोने लगी

    मैं मुस्कुराती-सी देती जवाब बेमानी

    मुझे लगा परवाह करनी चाहिए थी

    आपका बच्चा एकदम से बदलने लगे

    छुपाने लगे बात

    घड़ी-घड़ी डरने लगे

    घर का कोना तलाशे

    दीवार पर नाख़ून खींचे

    तब परवाह करनी चाहिए

    तमाम स्थितियों से गुज़रती किसी शाम

    कोई हाथ थामे मैं मुस्कुराती हूँ

    उसे तमाम दिल की बात बताती हूँ

    बरसों बाद खिलखिलाती हूँ

    तेज़ हवा के बहाव से उड़ते बादलों पर

    प्रेम में पड़ जाती हूँ

    अब प्रेम के सभी उतार-चढ़ाव मेरे

    सुख बोलने नहीं देता

    दुख समय छीन लेता है

    प्रेम उठता है तो समंदर की लहरों पर सवार साथी

    उस पार कहीं खो जाते हैं

    प्रेम में नहीं करनी चाहिए परवाह

    हमें तो इसकी आदत है

    हमें चाहा हुआ कहाँ मिला

    मिला उसे कब चाहा

    बातों का यक़ीन कैसा

    सपनों की उमर कितनी

    कितने रंगीन कंचे गली में गुम हो ही जाते हैं

    परवाह किसी और मायने का शब्द होगा शायद

    इसे चाहते सब हैं

    इसे बरतता कौन है?

    स्रोत :
    • रचनाकार : शैलजा पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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