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प्रभात स्नान

parbhat snan

ज्याेति शोभा

अन्य

अन्य

ज्याेति शोभा

प्रभात स्नान

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    विषम अवस्था है उसके एकांत की

    काव्य में पड़ा जैसे कोई तरल बिंब

    क्षण भर प्रकट होता है फिर स्वयं ही में विलुप्त

    एक और निषिद्ध रूप वाला प्रेमी

    जोड़ लेता है घुटने पसलियों से

    ताप में दग्ध झूलती है वेणी जो उसकी जंघाओं पर है

    किंतु ओझल है उद्गम

    केवल वह चित्रकार जानता है

    जिसने पूस के पाले में उकेरी थी मंदिर की चौथाई दीवार

    कि स्वयं एक भीषण अरण्य जैसी

    प्रेयसी प्रणय पश्चात गंगा में करती है प्रभात स्नान

    यों तो कोई नहीं देखता किस दिशा से आलिंगन लिया है उसका जल-कणिकाओं ने

    केवल वट दीखता है उसके चतुर्दिक

    वह भी घनघोर मेघ जैसा अब बरसा की तब बरसा

    गिरे पात से भरे हुए हैं उसके अंग

    कोई अनंत राग में फूलते हुए मदार जैसी तपती है जटा

    जहाँ हर तिमाहे निर्जल ही पड़ा रहता है सूर्य

    वहाँ से पाँव नहीं उठते

    मूर्च्छा घेर लेती है काया को

    तब जी होता है सामुद्रिक से मुहूर्त निकलवा कर

    कह आऊँ

    तुम्हारे द्वार पर इतने नदी पोखर हैं

    कविता पढ़कर भी शांत नहीं होती धारा

    इतना सिंदूर है देह पर

    कि झुकने से लाल पड़ जाता है संपूर्ण पक्ष

    तुम्हारे एकांत में अडोल हो उठती है श्वास

    जैसे पाँचवी बार मृत्यु-गंध आने पर भी नहीं हिली थी पुतली

    बरस के कोई भी पखवाड़े आने से जीवन नहीं छूटता

    मोह छूट जाता है अपनी काया में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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