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परग परग पर ठाढ़ लुटरे पंचौ जागा हो

parag parag par thaaDh lutre panchau jaga ho

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

परग परग पर ठाढ़ लुटरे पंचौ जागा हो

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

धुकुर-पुकुर सँझवै से जियरा निंदिया नौ दुइ ग्यारा,

उह उह डहकै खाइ पावै गउआँ कइ धारा,

आपन डेहरी छाँड़ि सेवाँरी दपके होइ गुजारा,

एहमा केउका दोख पंचौ सब अपनन से हारा।

सुधुआ का घर तेंदुआ घेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

कुपद करै सरपंच बइठिके पंचे मूड़ हिलावैं,

के दोखी निर्दोखी के बा एकौ ना फरियावैं,

जहाँ सुई ना जाइ, फार डारै कै जुगति बतावैं,

सत्त नियाव करें दूसरे का आपन ना निगरावैं।

चढ़-चढ़ौवा साँझ सबेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

कोइला से लइके हीरा तक के तसकर बैपारी,

चारिउ कइती जाल बिछाए ताकत अहैं सिकारी,

एक बात बस तोहसी पंचौ रहै चौकसी भारी,

कौनौ चोर लुकाइ पावै अगवारी पिछुवारी।

केकरे दम जे आँख तरेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

सबकै हित आपन हित मानै संतन कइ बानी,

सोहदा जेकरी आँखी के निझरि गवा बा पानी,

सबकी खातिर जियै मरै तौ कीरत जाइ बखानी,

अपने पेट भरै रातउ दिन पसुकै कौन कहानी।

उहै मरद जे मूड़ अभेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

जेका समझा गवा मसीहा निकरा उहै हलाकू,

वह देखा परधान के लरिके चमकावा थीं चाकू,

छिनरा ते डोली के साथे रामै राखै पानी,

भइया समझि बूझि के सौंप्या पंची परधानी।

जानि परे गुर पेरे-पेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

आपन चिंता छोड़ि देस दुनिया कै भूख मिटावै,

तम से लोहा लेइ कि कन-कन मा अँजोर फैलावै,

अमन चैन की गंगा से धरती का जिउ जुड़वावै,

उहै भगीरथ, राम, किसन, गौतम, गाँधी कहवावै।

पूजा पावै साँझ सबेरे पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

हे धरती के पूत लछनइत देसवा तोहरे माथे,

करिखा चन्नन दुइनौ बातै पंचौ तोहरे हाथे,

खून पसीना गारा जुरिके जनम लेहे के नाते,

बहै पयसरम कइ गंगा पौरुख के साथे-साथे।

आपन करनी किस्मत फेरे, पंचौ जागा हो।

परग-परग पर ठाढ़ लुटेरे पंचौ जागा हो।

स्रोत :
  • पुस्तक : माटी औ महतारी (पृष्ठ 25)
  • रचनाकार : आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'
  • प्रकाशन : अवधी अकादमी

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