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पलाश

palash

मनोज कुमार पांडेय

अन्य

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यह फ़रवरी होती है कि एक दिन

हम अचानक देखते हैं उनके लाल तप्त होंठ

साल के बाक़ी समय वे धूसर दिखते हैं

विरक्त सब कुछ से

वे अभिसार की कामना में नग्न होते जाते हैं पूरी तरह

कई बार तो अपना आख़िरी पत्ता तक उतार फेंकते हैं व्याकुल होकर

धूप चटक होती जाती है वे लाल होते जाते हैं

इतना रंग इतनी कामना इतनी आग कहाँ छुपी रहती है उनके भीतर

यह उनकी विकल पुकार है प्रेम की

यह हमारे पुरखों की वेदना का लहू है

मैं अपने उन्हीं पुरखों का अंश

पागल भटकता हूँ तुम्हारे लिए हर पल

मैंने समय की समझ खो दी है

कभी भी हो जाता हूँ लाल

कभी भी दिखने लगता हूँ धूसर

कभी भी होता हूँ नग्न और रोता हूँ तुम्हें पुकारता हुआ

स्रोत :
  • रचनाकार : मनोज कुमार पांडेय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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