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कवि का विमर्ष भाग्य

kawi ka wimarsh bhagya

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

नृसिंह त्रिपाठी

नृसिंह त्रिपाठी

कवि का विमर्ष भाग्य

नृसिंह त्रिपाठी

भले ही कुछ करो,

भले ही कुछ दो,

क्या उसे जीते जी

केवल एक दिन के लिए

स्वेच्छा से, जीने का

अधिकार नहीं दोगे भाई?

जन्म से ही वह व्याकुल है,

उसके अंदर निराशा की

सिगड़ी सुलगी हुई है।

वह केवल चाहता है,

एक दिन के लिए,

सीधा सरल जीवन।

जो सोचेगा

वही कहेगा।

और जो कुछ करेगा

अपने भीतर के आदमी के अनुमोदन से

जिसके लिए उसे कभी पछतावा नहीं होगा।

वह केवल रिश्ते समझता है

उसके लिए स्खलन नहीं।

सुनते ही मंदिर की घण्टियाँ

आरती को उत्सुक व्यक्ति

जिस तरह उचाट हो जाता है

और दौड़ पड़ता है

खेत, बाँध, कीचड़ अनदेखा कर

दौड़ते-दौड़ते हो जाता है धूल-धूसरित।

आधी रात को

पकड़े जाने के भय से, दौड़ रहे चोर के बदन में

लगी हुई धूल और कीचड़ की निशानी।

इसलिए वह स्खलन नहीं,

सब कुछ उड़ेलकर निःशेष होने का

वह केवल स्थूल प्रमाण है।

अहंकार क्या है—

वह नहीं जानता।

नहीं है उसमें नारियल की

कठोरता।

उसके अंदर का पुरुष,

जन्म देने वाली माँ का विश्वास,

सांत्वना और आत्म-गरिमा से

सदा प्रकाशमान है

अहंकार का नाम देकर उसे

करो कभी कलंकित।

उसका दुःख समझने के लिए

तुम्हारे पास यंत्र नहीं

उसकी सिसकियों के लिए

उसके अलावा और किसी की

आँखें अथवा दिल नहीं

उसके संताप-भरे गीतों के लिए

किसी के पास राग नहीं।

वह, केवल वह है।

किस अनजाने अभिशाप से

इस जन्म में बना है कवि

अपने भाग्य में ताला लगाकर

उसने अपनी इच्छा से खो दी है चाबी,

अपने विमर्ष भरे दिनें में

ज़रा-सी रोशनी के लिए

ख़ुद को जलाने के सिवा

और क्या चारा हो सकता है

उसके पास??

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1987-88 (पृष्ठ 15)
  • संपादक : र. श. केलकर
  • रचनाकार : नृसिंह प्रसाद त्रिपाठी
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
  • संस्करण : 1992

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