अक्टूबर के आरंभ की बरसती साँझ

october ke arambh ki barasti sanjh

बसंत त्रिपाठी

बसंत त्रिपाठी

अक्टूबर के आरंभ की बरसती साँझ

बसंत त्रिपाठी

यह अक्टूबर के आरंभ की

बरसती साँझ है

स्थगित मेघों ने डाल दिया है

आसमान में डेरा

पहले गरजे भयंकर

चिंघाड़ उठे हों

हाथियों के झुंड जैसे क्षितिज में

लंबे सफ़ेद दाँतों-सी कड़कदार बिजली

काली विशाल देह

धूमिल अँधेरे का विस्तार

ऋतु-चक्र में परिवर्तन की इस बेला में

सावन के आवारा मेघ

भटकते हुए आए हैं

पृथ्वी का पता पूछते

बरसो हे मेघ!

जल्दी बरस कर ख़ाली करो

शरद के लिए आसमानी सिंहासन

कि शरद अब आता होगा

आती होगी उसकी ओस टपकाती देह

भरी-भरी हरी पृथ्वी

अब ठंडी चाँदनी से नहाएगी

धान को अभी पकना है

सुनहरा होना है

किसानों के बैरी बनो मेघ

बरसो, बरस कर ख़ाली करो गगन

हे अक्टूबर के अनाहूत मेघ!

स्रोत :
  • रचनाकार : बसंत त्रिपाठी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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