Font by Mehr Nastaliq Web

निरंतरता

nirantarta

कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह

अन्य

अन्य

और अधिककुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह

    दरवाज़ा खुलते ही

    एक बेहद ख़ौफ़नाक क़िस्म का सन्नाटा

    घर के अंदर घुस आता है

    और

    बम का धड़ाका सुनते हुए

    मैं पास लेटी रौशनी को सहलाने लगता हूँ।

    इस उम्मीद में

    कि वह उठे, बतियाने लगे,

    और अँधेरे में बदलते हुए सन्नाटे का तेवर

    दीवारों से टकराकर

    बच्चों की खिलखिलाहट में

    डूब जाए।

    (लगे नहीं,

    कि भँवर में डूबते हुए आदमी की आख़िरी चीज़ की तरह

    मैं

    हवा की तरंग पर

    अकेले छितरा रहा हूँ।)

    तब तक

    निर्भेद सोई पत्नी की चूड़ियाँ खनक उठती हैं।

    और मैं नाख़ून पर नाख़ून जमाकर

    वर्तमान से अपना संवाद शुरू कर देता हूँ।

    जब कि,

    वर्तमान

    ख़ून के आईने में

    अपनी शक्ल खोजने में लगा रहता है।

    और धरती

    गोदी की हरियाली का ख़याल कर

    आसमान के सामने बेतरह भीगती रहती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचेतना (मार्च-जून 1973) विचार कविता विशेषांक (पृष्ठ 163)
    • संपादक : महीप सिंह, नरेंद्र मोहन
    • रचनाकार : कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए