निराला के प्रति

nirala ke prati

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती

निराला के प्रति

धर्मवीर भारती

वह है कारे-कजरारे मेघों का स्वामी

ऐसा हुआ कि

युग की काली चट्टानों पर

पाँव जमा कर

वक्ष तान कर

शीश घुमा कर

उसने देखा

नीचे धरती का ज़र्रा-ज़र्रा प्यासा है,

कई पीढ़ियाँ

बूँद-बूँद को तरस-तरस दम तोड़ चुकी हैं,

जिनकी एक-एक हड्डी के पीछे

सौ-सौ काले अंधड़

भूखे कुत्तों से आपस में गुँथे जा रहे।

प्यासे मर जाने वालों की

लाशों की ढेरी के नीचे कितने अनजाने

अनदेखे

सपने

जो गीत बन पाए

घुट-घुट कर मिटते जाते हैं।

कोई अनजन्मी दुनिया है

जो इन लाशों की ढेरी को

उलट-पुलट कर

ऊपर

उभर-उभर आने को मचल रही है!

वह था कारे-कजरारे मेघों का स्वामी

उसके माथे से कानों तक

प्रतिभा के मतवाले बादल लहराते थे

मेघों की वीणा का गायक

धीर-गंभीर स्वरों में बोला—

''झूम-झूम मृदु गरज गरज घनघोर

राग अमर अम्बर में भर निज रोर।''

और उसी के होंठों से

उड़ चलीं गीत की श्याम घटाएँ

पांखें खोले

जैसे श्यामल हंसों की पाँतें लहराएँ!

कई युगों के बाद आज फिर

कवि ने मेघों को अपना संदेश दिया था

लेकिन किसी यक्ष विरही का

यह करुणा-संदेश नहीं था

युग बदला था

और आज नव मेघदूत को

युग-परिवर्तक कवि ने

विप्लव का गुरुतर आदेश दिया था!

बोला वह—

—ओ विप्लव के बादल

घन मेरी गर्जन से

सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के नवजीवन को

ऊँचा कर सिर ताक रहे हैं

विप्लव के बादल फिर फिर!—

हर जलधारा

कल्याणी गंगा बन जाए

अमृत बन कर प्यासी धरती को जीवन दे

औ’ लाशों का ढेर बहा कर

उस अनजन्मी दुनिया को ऊपर ले आए

जो अंदर ही अंदर

गहरे अँधियारे से जूझ रही है।

और उड़ चले वे विप्लव के विषधर बादल

जिनके प्राणों में थी छिपी हुई

अमृत की गंगा।

बीत गए दिन वर्ष मास...

बहुत दिनों पर

एक बार फिर

सहसा उस मेघों के स्वामी ने यह देखा—

वे विप्लव के काले बादल

एक-एक कर बिन बरसे ही

लौट रहे हैं

जैसे थक कर

सांध्य विहग घर वापस आएँ

वैसे ही वे मेघदूत अब भग्नदूत से वापस आए।

चट्टानों पर

पाँव जमा कर

वक्ष तान कर

उसने पूछा—

''झूम झूम कर

गरज गरज कर

बरस चुके तुम?''

अपराधी मेघों ने नीचे नयन कर लिए

और काँप कर वे यह बोले—

''विप्लव की प्रलयंकर धारा

कालकूट विष

सहन कर सके जो

धरती पर ऐसा मिला कोई माथा!

विप्लव के प्राणों में छिपी हुई

अमृत की गंगा को

धारण कर लेने वाली

मिली कोई ऐसी प्रतिभा

इसीलिए हम नभ के कोने-कोने में

अब तक मँडराए

लेकिन बेबस

फिर बिन बरसे वापस आए।

हम कारे कजरारे मेघों के स्वामी

तुम्हीं बता दो

कौन बने इस युग का शंकर

जो कि गरल हँस कर पी जाए

और जटाएँ खोल

अमृत की गंगा को भी धारण कर ले!''

उठा निराला, उन काले मेघों का स्वामी

बोला—''कोई बात नहीं है

बड़े-बड़ों ने हार दिया है कंधा यदि तो

मेरे ही इन कंधों पर अब

उतरेगी इस युग की गंगा

मेरी ही इस प्रतिभा को हँस कर कालकूट भी पीना होगा।''

और नए युग का शिव बन कर

उसने अपना सीना तान जटाएँ खोलीं।

एक-एक कर वे काले ज़हरीले बादल

उतर गए उसके माथे पर

और नयन में छलक उठी अमृत की गंगा।

और इस तरह पूर्ण हुआ यह नए ढंग का गंगावतरण।

और आज वह कजरारे मेघों का स्वामी

ज़हर सँभाले, अमृत छिपाए

इस व्याकुल प्यासी धरती पर

पागल जैसा डोल रहा है,

आने वाले स्वर्णयुगों को

अमृतकणों से सींचेगा वह

हर विद्रोही क़दम

नई दुनिया की पगडंडी पर लिख देगा,

हर अलबेला गीत

मुखर स्वर बन जाएगा

उस भविष्य का

जो कि अँधेरे की परतों में अभी मूक है।

लेकिन युग ने उसको अभी नहीं समझा है

वह अवधूतों जैसा फिरता पागल-नंगा

प्राणों में तूफ़ान, पलक में अमृत-गंगा।

प्रतिभा में सुकुमार सजल घनश्याम घटाएँ

जिनके मेघों का गंभीर अर्थमय गर्जन

है कभी फूट पड़ता अस्फुट वाणी में

जिसको समझ नहीं पाते हम

तो कह देते हैं

यह है केवल पागलपन

कहते हैं चैतन्य महाप्रभु में

सरमद में

ईसा में भी

कुछ ऐसा ही पागलपन था

उलट दिया था जिसने अपने युग का तख़्ता।

स्रोत :
  • पुस्तक : ठंडा लोहा तथा अन्य कविताएँ (पृष्ठ 51)
  • रचनाकार : धर्मवीर भारती
  • प्रकाशन : साहित्य भवन
  • संस्करण : 1952

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