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इस शहर में तुम्हें याद कर

is shahr mein tumhein yaad kar

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

अन्य

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वीरभद्र कार्कीढोली

इस शहर में तुम्हें याद कर

वीरभद्र कार्कीढोली

और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली

    कई दिन हुए

    एक ही शहर दुहरा रहे हैं—

    इस शहर के प्रसिद्ध मंदिर में।

    भीड़ चाहती है नए-नए भजन सुनना

    पर मनचाहा भजन सुने बिना ही

    घनी रात्रि में

    दीया बुझाकर

    पुजारी ने आत्महत्या कर ली

    मंदिर में ही, प्रभु के!

    प्रभु के !

    हे प्रभु! आजकल हर रात

    आकाश को देखता हूँ

    देखता हूँ तारों को

    और रात होते ही

    चंद्रग्रहण की ओट में

    इस शहर के विकसित लोगों को

    फटे कनस्तर पीटते हुए

    मारते हुए कुत्तों को

    कई तरह के शोर मचाते हुए

    सुनता हूँ...!

    आकाश भी स्वच्छ नहीं है आजकल

    दिन भी तो दिन की तरह नहीं है

    उजाले में भी लोग क्यों सो रहे हैं...?

    अँधेरे में क्यों घबराते हुए जाग रहे हैं...?

    प्रभु! तुम्हारा पवित्र लहू

    इस गंदी नाली से क्यों बह रहा है...?

    तुम्हारी पवित्र आत्मा

    क्यों भटक रही है? भटक रही है...?

    कई दिन हुए

    एक ही शहर दुहरा रहे हैं—

    इस शहर के प्रसिद्ध मन्दिर में।

    भीड़ चाहती है नए-नए भजन सुनना

    पर मनचाहा भजन सुने बिना ही

    घनी रात्रि में

    दीया बुझाकर

    मन्दिर में ही, प्रभु के!

    पुजारी ने आत्महत्या कर ली

    प्रभु के !

    हे प्रभु! आजकल हर रात

    आकाश को देखता हूँ

    देखता हूँ तारों को

    और रात होते ही

    चन्द्रग्रहण की ओट में

    इस शहर के विकसित लोगों को

    फटे कनस्तर पीटते हुए

    मारते हुए कुत्तों को

    कई तरह के शोर मचाते हुए

    सुनता हूँ...!

    आकाश भी स्वच्छ नहीं है आजकल

    दिन भी तो दिन की तरह नहीं हैं

    उजाले में भी लोग क्यों सो रहे हैं...?

    अँधेरे में क्यों घबराते हुए जाग रहे हैं...?

    प्रभु! तुम्हारा पवित्र लहू

    इस गंदी नाली से क्यों बह रहा है...?

    तुम्हारी पवित्र आत्मा

    क्यों भटक रही हैं ? भटक रही है...?

    स्रोत :
    • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 69)
    • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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