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नींद के खरज पर

neend ke kharaj par

चंचला पाठक

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चंचला पाठक

नींद के खरज पर

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    नींद के खरज पर

    हँस आन बैठा है प्रियंक!

    जाने किस तन्मयता से बाँचता है

    प्राणों के सप्तस्वर

    पंचम पर आकर टूट जाती है जो देह

    खुल जाते हैं सारे बंध-अनुबंध

    अनहद बरसते पावस में

    माटी-माटी हो जाता है सब

    आकाश को अंक बार लेता है आकाश

    प्राण को प्राण

    जो चल पड़ा है अदीठ-अनाम

    उसे कोई नहीं अंक वारता

    मन का तुरंग लाँघता जाता है जन्म-जन्माँतर

    जल अगन पवन सब के सब क्षार हुए

    मोतियों को चुगते हुए हँस

    उतरता जाता है गहन से गहनतर

    मल्हार के आलाप से ज्यूँ भ्रष्ट हुआ गँधार

    बैठा है जीवन के श्वास-प्रश्वास के मध्य

    और जिसे कोई नहीं बरतता स्वरभंग के निमित्त

    गोष्पदी भर प्राण—

    स्मृतियों के विशाल अश्वत्थ का जलदर्पण हुआ है

    भाद्रपद के धारासार से पंकिल है पृथ्वी

    रोमकूपों में समा रहा क्षार

    उर्वर हो रहे खेत

    धान की माँसल हरीतिमा को

    नहीं धो पाती अपार जलवर्षा

    इतने ही विरोधाभास हैं इस संसार के

    रोप रही अक्षर

    और मैं ही क्षर रही निरंतर

    पुनर्नवा की भूमिवल्लरियों से पट गई है धरती

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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