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नीड़ का पपीहा

neeD ka papiha

अनुवाद : प्रेमनाथ दर

अमीन कामिल

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अमीन कामिल

नीड़ का पपीहा

अमीन कामिल

और अधिकअमीन कामिल

    सोए हुए, आ, चल निकल, यह झूले और हिंडोले छोड़,

    चक्षु अपने खोल ज़रा, फैला पंख, कोई शान दिखा,

    उठ, कर नई यात्रा,

    आरंभ नए प्रेम का,

    नवजीवन का ले मज़ा,

    रंग बिना यह सूर्य क्या-क्या पुष्प को रंग पहनाता है,

    ले देख नदी की आरसी में जल पारे की भाँति हिलता है।

    बन तू भी तनिक चंचल,

    जिह्वा तेरी है मिज़राब,

    सीख प्रेम के आदाब,

    चले गए तेरे भाई-बंधु कब से लेकर अपने साज़,

    उनका अंत? फुलवारी और प्रेम भरी आवाज़।

    जीवन कोई भेद नहीं,

    अंत स्वयं ही आरंभ है,

    आरंभ उड़ना उड़ना है।

    फूल तोड़ने वाले के भय से पुष्पों ने कब देर की है?

    यह झूठे भय की छाया है अपने मन की राय सँभाल।

    चल हो निर्भय निडर,

    बागों हरियालियों में फिर,

    गुलेल मारने वालों को दबाकर,

    छुरियों को देख या टुकड़ों को देख जीवन कभी क्या पीछे हटा?

    आज्ञाकारी या दास किसी का प्रेम क्या अब तक कभी बना?

    इस संकोच को तोड़,

    संकोच जो बुराई लाता है,

    कर अग्नि हृदय की तेज़,

    भर उत्साह हृदय में दौड़-दौड़ जिससे मुख पर आए रंग,

    यूँ बैठे पक जाएँगे धूप ही में कनपटियों के बाल और शुष्क

    होगा रक्त।

    उठ, चल, चला संघर्ष

    समय का है शुभ शकुन,

    ये घाव तेरे भर जाएँगे,

    इस काल का अश्व वायु उड़ाता रहा है तेज़,

    और मुँह के बल गिर जाते हैं, क्या ज़ार क्या चंगेज़।

    फ़रहाद की वह प्यारी,

    शीरीं की मधुर वाणी,

    कहाँ है वह परवेज़?

    तेरी बाट जोहती वाटिका और पुष्प तुझ ही को ताकते,

    एकांत में तू दूर बैठा स्वाभिमान नहीं जोश है,

    इतना तू बेसुध क्या हुआ?

    निर्जीव और निःशब्द क्या हुआ?

    वसंत का ले मज़ा ज़रा,

    उठ, त्याग यह चिंता पालना और बजा सुख का साज,

    मिज़राब चला साज़ पै और गा प्रीत ही के राग।

    यौवन के ढंग अपना,

    जीवन नया-नया,

    उड़ता जा, उड़ता जा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 177)
    • रचनाकार : अमीन 'कामिल'
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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