नया नाच

naya nach

सविता सिंह

सविता सिंह

नया नाच

सविता सिंह

जब मैं उस अँधेरे मकान में पहुँची

वहाँ कोई नहीं था रास्ता रोकने या बताने वाला

मामूली-सी हलचल थी वहाँ

और कुछ आवाज़ें थीं अँधेरा बजाती हुई

इन सबको पार कर जब मैं अंदर गई

मैंने पाया वहाँ नाचती हुई लड़कियाँ थीं

देगा की पेंटिंग में झुकी हुई जूतों के फीते बाँधती

हरी रोशनी में नहाती

या ड्रेस पहनती नाचघर की छत की ओर देखती हुई नहीं

बल्कि मटमैली छायाओं-सी

अपनी जगह अकेली नाचती हुई

स्यूरा ने ज्यों टाँक दी हों ये गतिमान आकृतियाँ यहाँ

अपने ब्रश की नोंक से

यह सभी कुछ इतना जाना-पहचाना लगा

कि मैं विचलित हुई

यह सब तो देखा-देखा लगता है मैंने सोचा

यहाँ मैं चुकी हूँ पहले कभी

इसमें से ही तो निकलेगी एक छाया बनेगी विश्वसुंदरी

बाद में बाक़ी सब एक-एक कर निकलेंगी

क़ैद हो जाएँगी एक बड़े से झूठ में फिर

बेचेंगी जीवन भर साबुन गाड़ियाँ स्कूटर फ़्रिज

कितना भयानक विस्तार पाएगा तब इनका शरीर

मिलेगा हमें कई-कई रूपों में वस्तुओं में हर जगह

लाखों करोड़ों को संबोधित करने का अवसर भी मिलेगा इन्हें

जब एक दिन अपने ताज पहन

वे पढ़ेंगी अपने रटे-रटाए पाठ

बताएँगी कितनी मुक्त हैं वे

अपने पुराने शरीर से किस तरह निकल चुकी हैं बाहर

दौड़ती हैं कैसे सड़कों पर लाखों गाड़ियाँ बन

हैं कितनी गतिमान वे

हज़ारों रंगों में बदल सकती हैं लिपस्टिक नेल-पॉलिश बनकर

परफ़्यूम की गंध बन फैल सकती हैं दसों दिशाओं में

अबाध हैं वे उन्हें कुछ भी बाँध नहीं सकता

विश्व बाज़ार में वही तो हैं सब कुछ अब

मुझे लग रहा था यह रोज़-रोज़ का देखा गया दृश्य ही है

जो छूट रहा है बुद्धि से

प्रतीत होता किसी सपने के हिस्से-सा

अवशेष-सा पिछले जन्म में देखे गए किसी दृश्य का

याद में बचा

कहीं कुछ था हमारे देखने और समझने के बीच

पर्दे-सा ढँके उस षड्यंत्र को शायद

रचा गया था इन लड़कियों की देह के इर्द-गिर्द जो

ढँके उनके मस्तिष्क में बिठाए गए पराधीनता के विष को

सुंदर विचारों की तरह सजाए गए थे विलासिता के

भव्य परिधानों में जो

शायद बहुत पहले तय कर चुका था बाज़ार

इन लड़कियों की नियति

बना चुका था ख़ुद को एक विशाल नाच घर

जिसमें नाचना था इनको जीवन भर

बेचने थे उसके उत्पाद उन्हीं में तब्दील होकर

अँधेरे मकान में नाचती लड़कियों वाला यह दृश्य

पहचान पाना इसलिए भी कठिन था शायद

कि मैं सोचती थी लड़कियाँ नहीं होतीं सड़कों पर भागती गाड़ियाँ

फ़्रिज या स्कूटर

वे तो रात होती हैं स्वप्न देखती हुईं

भोर का हल्का उजाला

चिड़ियाँ जिसमें अपनी आँखें खोलती हैं

सुबह का चाँद

सूरज जिसमें अपना मुख देखता है

और यह संसार जिसमें अपना मन

मैं सोचती थी लड़कियाँ नहीं नाचतीं किसी के ज़ोर में आकर

वे नाचती हैं जब वे चाहती हैं जहाँ चाहती हैं

अपने घरों आँगनों खेतों जंगलों पहाड़ों पर

वे नहीं करतीं ऐसे काम जिनमें नाच-नाच कर

बेचने हों उन्हें दूसरों के सामान

तितलियों-सी उड़ती हुईं वे तो चल देने वाली होती हैं उधर

जिधर उन्हें प्यार मिलता है और थोड़ा सम्मान

अँधेरे में नाचती लड़कियाँ निश्चिंत नाच रही हैं कोई नया नाच

जिसे मैंने पहले कभी किसी दुःस्वप्न-सा देखा था

जिसे मृत्यु नाचती है

भरती है जब वह संसार को विनाश की नई उत्तेजना से

उसकी आशंका के आश्चर्यजनक कौतूहल से

स्रोत :
  • पुस्तक : नींद थी और रात थी (पृष्ठ 44)
  • रचनाकार : सविता सिंह
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 2005

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