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67 हाइकू

67 haiku

अनुवाद : सुरेश सलिल

मात्सुओ बाशो

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मात्सुओ बाशो

67 हाइकू

मात्सुओ बाशो

और अधिकमात्सुओ बाशो

    रोचक तथ्य

    जापान में केले को 'बाशो' कहते हैं। हाइकू के पुनर्संस्कर्ता कवि के एक शिष्य ने सन् 1680 में इदो (आज का टोक्यो) की सुमेदा नदी के तट पर स्थित कवि की कुटी के बाहर केले का एक गाछ लाकर रोप दिया। उसी क्षण से कवि अपना पूर्व-नाम 'तोसेई' त्याग कर 'बाशो' हो गया।

    (1)

    रोपा बग़ीचे में एक गाछ 'बाशो' का,

    उतर गए मन से

    अँखुए सिरपेंचा के

    (2)

    नव वर्ष—

    बाशो-तोसेई की कुटिया

    गूँज उठी हाइकू से

    (3)

    वासंती रात,

    चेरी के फूल

    प्रात

    (4)

    वासंती हवा—

    बुनी चंद्रमा ने

    आलूचे की अरधान से

    (5)

    वसंत का चंद्रमा—

    फूल का मुखड़ा

    कुहासे से घिरा

    (6)

    वासंती वर्षा,

    तरुओं के तले

    झलमल जल धारा

    (7)

    बरसते वसंत में

    मुझे झिझकोरते हैं वे—

    बूढ़े आलसी!

    (8)

    बिना घंटियों का गाँव—

    वासंती शामों में

    क्या है फिर सुनने को!

    (9)

    चाँदनी में नहाता आलूचे का दरख़्त—

    इंतज़ार करता

    वसंत की अवाई का

    (10)

    पर्वत-पथ—

    आलूचे की अरधान में से

    सूर्य उदित होता हुआ

    (11)

    मत बिसराना

    आलूचे का फूल,

    खिला है जो झुरमुट में

    (12)

    आलूचा के

    श्वेत पुष्पों की फुहार—

    कहाँ हैं क्रौंच?

    (13)

    पहली चेरी

    मुकुलित होती हुई

    बौराए आडू की बग़ल में

    (14)

    पंखुड़ियाँ पीले गुलाब की

    मचलती लरजती हैं—

    एक जलप्रपात

    (15)

    तितली—

    पंखों के कँगूरे

    पोस्त के सफे़द फूलों में

    (16)

    जाग री तितली,

    देर हो गई,

    मीलों सफ़र साथ तै करना

    (17)

    बनफ्शे के फूल—

    कितने क़ीमती

    किसी पहाड़ी पथ पर

    (18)

    कितने ही पास से देखा—

    कोई धूल-धब्बा नहीं

    सफे़द गुलदाउदी पर

    (19)

    आओ, देखो

    असली फूल

    इस कठिन कठोर दुनिया के

    (20)

    कब से लालायित हूँ देखने को—

    भोर के फूलों के बीच

    ईश्वर का चेहरा

    (21)

    फ़सल कटाई की धूप में खिला फूल—

    चिड़ियों की चहक

    तितलियों की थिरक

    (22)

    भगदड़ वसंत की—

    चीखे़ पखेरू

    मीन-नयन-छलछल

    (23)

    मुंडेर पर गौरइयाँ

    परछती में चूहे—

    स्वर्गीय संगीत

    (24)

    बेजान टाँगों पर

    फुदकता है एक कौआ—

    शरद की रात

    (25)

    शुरू शरद में

    खेत धान के,

    हहराता हरा महासागर

    (26)

    एक भी बटोही नहीं!

    बहुत ख़ूब यह पथ—

    शरद की रात

    (27)

    बाशो के पत्ते झूलते-झूमते हुए

    बाशो की कुटिया के चारों ओर—

    चंद्र-दर्शन हो रहा होगा

    (28)

    आओ चलें,

    करें हिम-दर्शन—

    कफ़न-दफ़न होने तक

    (29)

    बेचारा बालक

    वंचित चंद्र दर्शन से—

    धान कूटता हुआ

    (30)

    हिम-प्रतीक्षित

    कवियों ने देखी—

    प्यालों में बिजली की कौंध

    (31)

    दक्खिनी घाटी—

    हवा लाती छितराती हुई

    एक हिम-सुगंधि

    (32)

    क़स्बे के सौदागरो,

    कौन ख़रीदेगा ये हैट

    हिम-रोगन चढ़ी?

    (33)

    ओस की बूँदें—

    कितनी ख़ूबसूरती से धो डालती हैं

    दुनियावी गर्द- धूल!

    (34)

    हिमाच्छादित दिन,

    टट्टू पर मेरे

    एक जमी हुई काया

    (35)

    पतझर के दिन आए—

    परिंदे और बादल तक

    बूढ़े नज़र आए

    (36)

    मकड़े,

    तुम रो रहे हो

    या पतझर की शाम?

    (37)

    ताल पुराना,

    दादुर कूदा—

    छप्-छपाक्

    (38)

    शरद का समापन—

    कैसे कर रहे हैं

    पड़ोसी जीवन-यापन?

    (39)

    जाड़े की पहली बारिश—

    निकल पड़ा मैं,

    मेरा नाम बटोही

    (40)

    बटोही डूबा हुआ नींद में—

    एक बीमार बतख़ ठिठुरती हुई,

    जोड़े की रात

    (41)

    पत्रहीन चेरी लदी हुई फूलों से,

    जैसे कोई दंतहीन बुढ़िया

    विचरती हुई अपने जवानी के दिनों में

    (42)

    जाड़े में झमाझम—

    बंदर भी चाहे

    बरसाती

    (43)

    कवि दुखी है ठिठुरते बंदर को देख कर,

    क्या हो इस शिशु का,

    गया है जिसे यूँ अनाथ छोड़ कर?

    (44)

    साल-दर-साल

    कपीश का मुखौटा

    उघाड़ता है कपीश ही

    (45)

    रात अँधेरी

    चीने टिटहरी

    'हाय मेरा घोंसला'!

    (46)

    आलू के खेतों के पार

    द्वार मंदिर का—

    लंबी तड़ंगी घास में गुम

    (47)

    चार मंदिर-द्वार—

    एक ही चंद्रमा के नीचे

    चार पंथ

    (48)

    ग्रीष्म का घास मैदान

    बस यही बचा है

    जोधाओं के सपनों में सें

    (49)

    चाँद नहीं-फूल नहीं

    ही कोई मित्र

    और वह साके के जाम ढालता हुआ

    (50)

    टोपी, छाता,

    हेमंत की बारिश का

    क्या जाता!

    (51)

    बुद्धदेव के निर्वाण दिवस पर

    बूढ़े हाथ

    सुमिरनी फेरते हुए

    (52)

    मरता हुआ झींगुर—

    जीवन से कितना भरपूर

    उसका गान!

    (53)

    ग्रीष्म का चाँद

    ताली बजाता हुआ—

    मैं भोर का हरकारा

    (54)

    कितना उपयुक्त है

    पवित्र कुमारियों के लिए

    बौरे आलूचे का एकाकी एक वृक्ष!

    (55)

    तितली मंडराई एक सुकोमल पुष्पवृंत पर—

    कितनी सुरीली लय में दहक रही

    सुगंधि उसके पंखों पर!

    (56)

    कविताओं से अंकित

    पुराना पंखा यह—

    होगा कुछ गर्मियों के अंत तक

    (57)

    कविता की दीवानगी में

    दौड़ पड़ा मैं चिकुसाई की भाँति

    वायु-वेग से

    (58)

    घर लौटते हुए

    वर्ष के अंत में—

    रो पड़ा मैं नाभि-नाल के लिए

    (59)

    अतिथि की परछाईं

    काग़ज़ के पर्दे पर—

    मैं बैठा स्वप्नादिष्ट कोयले के धुएँ में

    (60)

    चाँद डटा हुआ

    दरख़्तों की फुनगी पर—

    पत्तियाँ बारिश से चिपकी हुई।

    (61)

    ऊबा हुआ चेरियों से

    ऊबा हुआ दुनिया से

    बैठा हूँ गँदली साके और जले हुए भाल के सम्मुख

    (62)

    विलगित होंगे हम सदा के लिए मित्रों,

    बादलों में विलुप्त

    हंसों की भाँति

    (63)

    चप्पू लहरों को तमाचे जड़ते हुए—

    हिम्मत पस्त है

    इस उदास रात में

    (64)

    कर्कश स्वर—

    उपल वर्षा

    मेरी पुआल की पुरानी हैट पर

    (65)

    यात्रा का अंत—

    अब तक सही सलामत

    इस पतझर शाम

    (66)

    मौसम की मार खाया

    हड्डियों का एक ढाँचा—

    कैसी तो कँपा डालने वाली हवा!

    (67)

    सफ़र में बीमारी—

    सपने भटकते हुए

    झुलसे मैदानों में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 85)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : मात्सुओ बाशो
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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