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नस्लहीन नगर

naslhin nagar

जगदीश चतुर्वेदी

अन्य

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जगदीश चतुर्वेदी

नस्लहीन नगर

जगदीश चतुर्वेदी

कितने डरे हुए दिखते हैं सभी लोग

छातियों पर हाथ बाँधे, सहमे से,

नतमस्तक—

ज्यों गिलोटिन पर चढ़ाए जा रहे हों।

नगर में शोर है

विषेला धुआँ आँखों से निकल रहा है,

सभी मर्द घिनौने कछुओं से पहने हुए हैं खोल

केंकड़े-सी सिमटी जा रही हैं रतिक्रांत युवतियाँ

बुझे बल्बों की क़तार-सी टिड्डियों की टोली :

नपुंसकों का हुजूम!

कोई हँस रहा है।

क़तार में नहीं नेपथ्य में

कोई डकार रहा है

(मर्द नहीं, कोई बैल होगा)

यहाँ तो सभी चेहरों पर चढ़ा है,

मायूसी का पलस्तर :

नस्ल होनों का क्रंदन!

मुझे ले चलो

इस खोखली नगरी से बहुत दूर,

मेरी अस्थियाँ गल रही हैं

मेरी ज़िंदगी उखड़ रही है,

घुट रही हैं मेरी दम तोड़ती साँसें

मुझे उबकाई रही है।

यहाँ कोई भी नहीं है...

...कोई नहीं,

सभी हैं कटे हुए पेड़

क्लोरोफ़ॉर्म की ट्यूब में बंद सहमे-से कीड़े,

यहाँ कोई भी नहीं है,

शायद मैं भी

नस्लहीनों का एक प्रेत हूँ—

शापग्रस्त प्रेत!

स्रोत :
  • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 90)
  • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1967

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