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नदी

nadi

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

सच्चिदानंद राउतराय

अन्य

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और अधिकसच्चिदानंद राउतराय

    वह एक विवस्त्रा नदी,

    ढूँढ़ती फिरती है क्षण-क्षण नूतन परिधि

    और एक बालूघर

    जिसे वह चाट सकती है।

    और घोंघे की कई गुड़ियाँ,

    जिन्हें वह तोड़ सकती है।

    प्रवाल की सुहाग-सेज बिछा

    हालाँकि तुम नाहक ही कान दिए हुए हो

    उसके आने के लिए।

    सम्भवतः वह आई थी

    वैदूर्य के तोरण से होकर,

    एक छोटे नूपुर की खनक-सी।

    कब? किस तरह?

    जानकर कोई लाभ नहीं।

    वह एक निर्जन नदी है।

    अपने पथ से बड़ी।

    इसलिए उसके पाने में

    चाह की अपूर्णता नहीं है।

    असहाय द्रौपदी-सी वह जो कुछ चाहती है,

    सारा कुछ उसकी आँखों में मोती बन

    दूसरे ही क्षण कहीं विलीन हो जाता है।

    वह जैसी नदी थी,

    वैसी ही नदी है।

    अनंत जिज्ञासाओं के बीच

    एक ध्रुपदी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बसंत के एकांत ज़िले में (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : सच्चिदानंद राउतराय
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1990

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