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नारद उवाच

narad uwach

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

तारिणी चरण दास ‘चिदानंद’

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और अधिकतारिणी चरण दास ‘चिदानंद’

    आभाषः

    हे राजन!

    तुमने यह क्या किया,

    भूनकर खा गए

    यज्ञ के नाम पर,

    हरिण शावक को!

    सांभर, वराह, कृष्ण सार

    कर डाले निपात,

    लूट ली वन की संपदा

    पाँवों से रौंदकर

    हरी-हरी धरती

    काटकर साल और पीपल

    हरी-भरी वनराई

    धन रत्न लूट लिए, ख़ाली कर ख़ज़ाने

    ढेर लगाया पातालपुर में

    कुबेर नगरी में!

    भिखारी प्रजारंजन

    फिर गो संपदा और

    निगल गए जो खाद्य तक

    कैसे मनुष्य हो तुम!

    रहा अजगर मुँह बाए

    गरजते हुए बाघ और सिंह आते

    नखदंताघात से

    कर देते विदीर्ण मुझे।

    छिन्न-छिन्न हो जाता शरीर सारा

    जंगली जानवर सोच, हत्या की थी जिनकी

    आज वे घिरे होंगे

    किरच-किरच कलेजा करके

    छाया-से कौन हैं ये

    गंध से आए हैं

    हाथ में लोहे की छड़

    खोपड़ी मेरी करेंगे टूक-टूक

    अथवा सीधा खड़ा कर चीर डालेंगे।

    क्लेद, श्लेष्मा में

    अंतिम मुझे कराएँगे स्नान

    सींग वाले राक्षस संग

    यमराज के सैनिक

    जलती आग में डालकर मुझे

    सुखाकर काटों के ढेर पर

    बहा देंगे मलमूत्र, और रक्त्त की धार में

    हे ऋषि प्रवर स्वप्न हो या सत्य

    मैं नहीं देख पाता इसे, बचाओ-बचाओ

    मेरा उद्धार करो!!

    अन्वेषः

    हिमगिरि के पास

    ऊपर अनंत आकाश!

    मृदुमंद शीतल बतास

    बह जाती कलकल गंगा, शीतल धार में

    घने वन से, सुनाई दे रही

    अजीब ये काकली।

    क्यों हो रहा मेरा मन यों विकल

    किसकी मैं कर रहा प्रतीक्षा

    क्या यही है प्रेम की दीक्षा?

    दूर से दिखता

    ऊँचा दुर्ग और गहरी खाई,

    यह किसकी शिंजनी, किसकी पगध्वनि

    कौन बाला

    जिसकी रूपभरी कला!!

    कौन हो देवी

    आकर्ण लोचना

    डमरू मध्यमा

    स्वर्ग की अप्सरा

    नहीं कोई मानवी

    “मैं नहीं जानती कौन हूँ

    किसकी दुहिता,

    कौन पिता-माता।”

    इस दुर्ग की वासिनी

    नाम पुरंजनी

    घेरे है जिसे सुदीर्घ खाई

    पंचफणा नाग करता है

    सुरक्षा इस दुर्ग की

    नव द्वार पर

    पहरा देते नव राजा

    और साथ में दस परिचारिका

    मैं नहीं कोई देवी, मैं मानवी... नारी हूँ!!

    आओ हे प्रियतम देखो मेरा दुर्ग

    यही है सर्व, यही है भोग और अपवर्ग

    सिंहासन पर एक साथ

    बैठो मेरे संग

    समय व्यतीत करते हुए रहते रतिरंग

    यही सत्य है, यही नित्य है

    नित्य है क्षणिक संसार

    आओ हे राजकुमार

    करो तुम, करो मेरे संग श्रृंगार

    विव्रत जघन, उन्मुक्त्त स्तन और उन्मन मन।

    आसक्त्तिः

    हे मेरे अभिमान

    हे राजकुमारी

    तुम थी मृत्युपुर में

    मुझे पता भी था

    बैठी रही तुम

    और पास में

    हँसती तो मैं हँसता नित

    रोती तो बिसूरता मैं

    सँवारती तो बाँध देता केश

    तुम्हारी साँसों में मैं लूँगा

    छाया-सा चलता रहूँगा साथ-साथ

    तुम्हारी हर धड़कन में धड़कता रहूँगा मैं

    तुम्हीं मेरे जीवन हो

    मेरी अभिन्न आत्मा

    और मेरे प्राण।

    घना जंगल चारों ओर

    काँटे और झाड़ियाँ

    चारों ओर काँटे-लताएँ

    साल, सीसम, पीपल के पेड़।

    सेनाएँ हुंकारकर

    भगा देतीं पशु को।

    विराजते राजा मंच पर

    धनुष लिए ऊँचे मंच पर

    भूतल पर लौटते सांभर,

    वराह और हिरण का दल

    राजा का आज

    मन चाहता मांस

    पारषद के संग

    आमिष भोजन करेंगे

    लेह्य, स्वादिष्ट भोजन

    फिर चलेगी द्यूत क्रीड़ा,

    आमंत्रित राजाओं के साथ,

    सुगंध जल में करेंगे स्नान राजागण

    सिहरन भर जाएगी सारे अंग में।

    उद्वेलित करेगा काम,

    आकुल हो खोजते महिषी

    पुरंजनी गई है

    बह गई चक्षु जल में

    राज-मस्तक झुक गया क़दमों में

    राजा कहते मर्दानगी में

    थिरकती सिंजनी, क्रुद्ध पुरंजनी

    तुम सब पुरुष शैतान,

    जुआ खेलोगे,

    कामना में डूबे हुए।

    भूल जाते मानवता,

    जानते नहीं प्रेम

    तुम्हारा विकास कब होगा

    कब होगा उत्तरण?

    पुत्र एकादश शत और कन्या एकशत दस

    बीत जाते दिन, मास, वर्ष।

    आक्रमणः

    प्रचंड वेग में रौंदते रहे

    तेज़ गति में, तीन सौ साठ सैनिक

    साथ में श्वेत-कृष्णा दासियाँ

    थामे हैं पताका

    और हैं प्रजा, युवराज

    कालकन्या...

    खद्योत... अविमुखी द्वार

    खुले हैं,

    नलिन-नालिनी द्वार खुले

    देव, पितः सब पराहत

    निर्वाक और पेशकार अंधा

    विनम्र सेवक।

    विसूचि पुरंजनी चिंता में डूबी हुई

    सूख गई उजागर रहते हुए

    क्लांत और हार गई।

    पांचाल नगर में लग गई आग

    कोई किसी को पहचानता नहीं।

    दुर्ग ध्वस्त है आज

    नगर जन सब, राजा अपूजित

    पुरंजनी पुर में कोई नहीं जा पाता।

    जूठी थाली में अन्न परोस देता कोई

    कुत्ते-सा खा रहा बूढ़ा एक बैठकर।

    तथापि संतप्त वृद्ध, परिवार,

    पत्नी की बात सोच

    आँसुओं में भींगी पलकें,

    अपार आसक्ति में।

    सिंहासन पर विराजते राजा

    बज रहा बाजा

    मलय ध्वज की बहुत बड़ी प्रजा

    खड़ी है अर्धांगिन, विदेह नंदिनी

    बज रही नूपुर किंकणी, श्वेत केश

    एक दे रहा त्रास

    राजा बैठ गए लेकर संन्यास।

    नदी तीर वृक्ष तले दास

    सफ़ेद साड़ी में एक नार

    करती विलाप, सजा रही चिता

    जिएगी किसलिए, किसका मुँह देखकर?

    चंदन काठ की धुँआ मिलकर

    चक्कर काटती उठ रही, अनंत आकाश तक।

    संक्रमणः

    श्मश्रुल ब्राह्मण एक प्रवेश कर संबोधन कर रहा—

    हे मानस हंस, मैं तुम्हारा अंश

    याद नहीं, एक ही झील में करते थे निवास?

    अचानक राह भूल तुम चले गए

    मैं रहा गया अकेला।

    मानव जीवन क़ीमती कितना

    उदास हो क्यों तज रहे प्राण?

    नीड़ से बिछड़े थे तुम उस दिन

    मैं देश-देश खोजता फिरा

    अचानक इस वनराई में

    हो गई भेंट।

    “अविज्ञात” तुम्हारा सखा मैं

    तुम राजा या रानी,

    तुम विदर्भ की नंदिनी मलय ध्वज

    यह केवल तुम्हारी परीक्षा।

    प्राण मन इंद्रियों में स्वयं को आरोपित कर

    भूले हुए, व्याकुल तुम हो रहे।

    क्षण स्थाई असत सांसारिक वस्त्र

    अविद्या में जीव कर रहा चिंतन,

    और दृढ़ कर रहा संसार का बंधन।

    पाया है जितना ज्ञान, व्यर्थ और अज्ञान

    अपने को पहचानने का ज्ञान ही,

    वास्तविक ज्ञान,

    “हे विस्मृत करो स्मरण अपना स्वरूप

    पाओगे दिव्य सुख।

    चिंतन को नियंत्रित करो

    हृदय कमल पर एक पल,

    परम आनंद ही लक्ष्य है,

    लक्ष्य नहीं मानना क्षणिक आवेश

    उड़ जाएँगे मानसर, मानस हंस हम

    भक्षण करेंगे मृणाल और मधु

    हर्ष मन में

    तोड़कर नामरूप का कारागार।”

    इति नारद उवाच—प्राचीन ग्रंथ में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 109)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : तारिणी चरण दास ‘चिदानंद’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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