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मिथ्याचार

mithyachar

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

अन्य

तिरुवल्लुवर

मिथ्याचार

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    271

    वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक।

    पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक॥

    272

    उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम।

    समझ-बूझ यदि मन करे, जो है दूषित काम॥

    273

    महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय।

    व्याघ्र-चर्म ओढ़े हुए, खेत चरे ज्यों गाय॥

    274

    रहते तापस भेस में, करना पापाचार।

    झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार॥

    275

    ‘हूँ विरक्त’ कह जो मनुज, करता मिथ्याचार।

    कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार॥

    276

    मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान।

    मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान॥

    277

    बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान।

    उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान॥

    278

    नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस।

    मिथ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश॥

    279

    टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर।

    वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर॥

    280

    साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम।

    उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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