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मेरे जीने की ज़िंदगी कुछ अलग है

mere jine ki zindagi kuch alag hai

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

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वीरभद्र कार्कीढोली

मेरे जीने की ज़िंदगी कुछ अलग है

वीरभद्र कार्कीढोली

और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली

    कहाँ था कल मैं

    कहाँ पहुँचाया गया हूँ आज

    समय! किस मुल्क में लाकर

    जीने के लिए छोड़ गए हो

    मैं अपना अतीत भी देख नहीं पाता—क्यों?

    यहाँ के मौसम में उपजने वाली फसलें

    कैक्टस ही हैं केवल

    मुझे भी कैक्टस में जीने देने वाला

    कैसा है यह मुल्क?

    समय कहाँ है दिल, मन और हृदय

    पहले का सा

    कहाँ है आत्मा मेरी?

    आँसूहीन आँखों में

    परिवर्तन, कैसे सपने दिखला रहे हो मुझे

    मेरे सपने में हिमाल

    दिखता नहीं आजकल, क्यों?

    कहाँ है मेरी संवेदना

    कहाँ किया है सुबह के निष्कलंक सूरज ने

    पृथ्वी के चरण-स्पर्श

    मैं देखना चाहता हूँ।

    यहाँ क्यों एक तरह हैं—दिन/रात?

    क्यों असुरक्षित है ज़िंदगी?

    मेरा अभिप्राय/अभिमत यह नहीं था

    समय! यह किस रास्ते से ले जाकर

    कहाँ पहुँचाना चाहते हो मुझे?

    यह रास्ता

    यह सफ़र नहीं है मेरा

    नहीं तो बहते मेरे पसीने

    और ढो रहे बोझ में

    क्यों नहीं है संतोष?

    इस चढ़ाव में बोझ उतारकर पसीना पोंछने

    एक चौपाटी का निर्माण क्यों नहीं हुआ

    इस मुल्क में?

    कैसी प्यास है यह

    यह प्यास भी मेरी नहीं

    वास्तव में मेरी प्यास तो

    कुछ अलग ही है—अलग!

    यह कौन सी शाम है

    कहाँ है गोधूलि

    मुझे तो जुगनुओं से मिलना है।

    समय! कहाँ हैं मेरी कोमल हथेलियाँ

    ये हथेलियाँ कैक्टस की हैं, मेरी नहीं

    चाहिए मुझे मेरी हथेलियाँ।

    समय, हथेलियाँ बदलना नहीं चाहता मैं!

    पता चला है मुझे

    इस सितार, पियानो और सिंथेसाइज़र के हृदय से

    वे राग और धुन,

    जो मैं सुनना चाहता था...

    नहीं चाहिए ऐसा परिवर्तन

    कैक्टस मुल्क में

    मैं कैक्टस बनकर जी नहीं सकता

    नहीं चाहिए ऐसा परिवर्तन

    लौटा दो मुझे अपना मन, हृदय

    मेरी कोमलता, मेरी अक्षु और मेरा दर्द भी

    मैं रोना चाहता हूँ क्योंकि

    कराहना चाहता हूँ...!

    मैं प्रेम चाहता हूँ...!!

    समय, वही समय लौटा दो

    मैं उसी रास्ते से यात्रा करना चाहता हूँ।

    मेरे बोझ भी लौटा दो

    बोझ ढोकर मैं

    जीना चाहता हूँ ज़िंदगी।

    अलग ही स्वाद है ज़िंदगी में

    बोझ ढोने का

    वह नहीं जानते तुम।

    अब पता चला मुझे

    तुम्हारे मुल्क में जी रही ज़िंदगी

    अपनी नहीं थी

    वास्तव में यह ज़िंदगी भी मेरी नहीं

    वास्तव में मेरी ज़िंदगी तो कुछ अलग है

    मेरे जीने की ज़िंदगी कुछ अलग ही है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 46)
    • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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