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मथुरा

mathura

हेमंत शेष

हेमंत शेष

मथुरा

हेमंत शेष

बहती जाती और गुम हो जाती है

दोनों में रखी टिमटिमाती लौ

जिसकी लहरों पर रोज़ शाम

हिमालय से निकल कर यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते

एक बूढ़े अजगर जैसी मैली और थकी दिखती है यह नदी

देह पर जिसकी तैरते हैं शव मल फूल गुलाल पान दोने मालाएँ कचरे के ढेर

तैरतीं है घृणा

आस्थाएँ और भरोसे प्रार्थनाएँ और प्रणाम

पानी के दर्पण में उलटे छपते प्राचीन घर कुम्हलाई गलियाँ

मंदिरों की ध्वजाएँ शंखनाद और बृजभाषा की गालियाँ

सुनते-सुनते

कुछ बूढ़े-काँपते हाथ दीपदान करते

थोड़ा-थोड़ा रोज़ विसर्जित करते हुए अपना होना

यहाँ एक घड़ी जाने कबसे रुकी हुई है

झरता है कंस का क़िला थोड़ा-थोड़ा हर बरस

महाभारत के राजा की कलयुगी प्रजा और

दुकानदारों को व्यस्त रखते हुए सन् 2017 ईस्वी में

गद्दलों बंडियों बग़लबंदियों गुलाबजल की बोतलों पर

थोड़ी-थोड़ी धूल हर पल जमती जाती है

हर सुबह फत्ते-मल्लाह बिछाने लगता है बंगाली-घाट पर

नई रंग-बिरंगी सुजनियाँ अपनी नाव में

धड़धड़ाती हुई नीली भारतीय रेलें जिसके कीचड़ भरे पानी को

रोज़ उलाँघती हैं : तीर्थयात्री आए हैं आते रहेंगे

मैली और थकी दिखती इसी हतभाग्य नदी के पास

फत्ते को भरोसा है :

‘नईं भैय्या! जे जमना मैया नहीं सूखबे बारी’

बहुत प्राचीन और अनबदला है यह कृष्ण-काल का यह जलरंग-चित्र

रूखी हवाएँ किनारे पर सूखती रंगीन साड़ियों को उड़ाती हैं

घाट-घाट परभंग की तरंग में झूमते पंडे जजमान खोजते हैं

और ग्याभन गायों की प्रतीक्षा में खंभों से ताक़तवर पुट्ठे रगड़ते हैं

कामोत्तेजित साँड़

मथुरा-छावनी में

पुराने पाकिस्तानी टैंकों पर आसमान से गिर रहे हैं अमलतास के फूल

और पीले दिखते हैं वे इस्पात की नाल पर पड़े हुए

पेड़ों से टपका है

एक साल पुराना मौसम पतझर का

जैसे :

गिरते हैं गली में ‘सती-बुर्ज’ पर झगड़ते हुए कबूतरों के पंख

चाऊमीन खाती

होली दरवाज़े पर चुँधी आँखों वाली तिब्बती स्वेटर वालियाँ

मोल-भाव करते ग्राहकों से उलझती-उलझती जाती हैं

अपनी गुप्त व्यथाओं और प्रसन्नताओं का झोला बाँधे

अदृश्य अनगिनत अनुत्तरित सवालों की गठरी लादे

चलता हूँ, मथुरा की पाल पर, घाटों पर, रेत में, सीढ़ियों पर

बाज़ारों की घिचपिच में अकेला बावली भीड़ के साथ

पुरानी खिड़कियों में बिजली के लट्टू खोल रहे हैं पीली आँखें

पुराने मकान पुरानी दुकानें पुराने लोग पुरानी गलियाँ नया काठ-कबाड़

रात के अम्ल में घुलते जा रहे हैं बेआवाज़

खींच कर नीचे की गई भद्दी-सी आवाज़ के सहारे

अभी-अभी गिरा है किसी दुकान का एक और शटर

जाओ-घर जाओ... कल लौटने के लिए

बंद हो रहा दरवाज़ा लोहे की भाषा में हरेक से कह रहा है

बस... एक नदी इन्हीं दृश्यों का पड़ोस खोजती बहती है

क्या फत्ते मल्लाह के भरोसे की रक्षा में बहती है असामान्य-सी वह

बहती ही जाती है

जैसे हर शाम ब्यालू के लिए पीहर जाती हुई

चादर की ओट से झाँकती एक चौबन :

इस सच को झुठलाते कि

इस शहर की घड़ी जाने कब से रुकी हुई है!

स्रोत :
  • रचनाकार : हेमंत शेष
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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