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मरती हुई चिट्ठी

marti hui chitthi

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी

एन. गोपि

अन्य

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एन. गोपि

मरती हुई चिट्ठी

एन. गोपि

और अधिकएन. गोपि

    फ़ोन में क्या रखा है

    मन के सन्नाटे के सिवा?

    बार-बार पढ़ने पर भी नष्ट होने वाले ताड़-पत्र-सा

    बक्से में नीचे छिपाए गए कोहिनूर-सा

    नित्य-हरित-स्वप्न का प्रकाश है चिट्ठी।

    एक मील चलकर जाने पर

    डाकघर में मिल जाता था एक कार्ड

    सैकड़ों एकड़ में छितराए जाने वाले बीजों की तरह नहीं

    छोटी-सी जगह में ज्वार बनकर उगते थे अक्षर

    उँगलियाँ सपनों के प्रकाश से उज्ज्वलित होती थीं

    डाकिये जैसा सुंदर पुरुष

    संसार में कोई दूसरा नहीं होता था।

    हम दोनों को उद्वेग की रेखा पर ठहराने वाले

    उस मोतियों के पुल को किसने तोड़ा, प्रिये!

    माँ के लिए मनीऑर्डर से ज़्यादा

    चिट्ठी ही ऑक्सीजन-सी लगती है न!

    बादल, तारे, चंद्रमा

    सबको लिए आसमान ही बन जाता था

    सुंदर चिट्ठी

    हमें यह क्या हो गया है?

    मन के सूने मंदिरों में

    भावनाओं का क्या दिवाला निकल गया?

    सफलताओं की ख़ुशबू में घिरकर

    क्या बचपन मुरझा गया?

    काली स्याही फ़ीकी पड़ सकती है

    पर रक्त-सरोवर में डुबोकर लिखे गए अक्षर

    सचमुच के होते हैं।

    ‘कम्यूनिकेशन’ के शोर से घबराकर

    कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं

    उन्हें पकड़कर रोकिए

    ‘हैलो’ के एक ही तीर से

    रसार्द्र-जीवन के खज़ाने को मत नष्ट कीजिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समय को सोने नहीं दूँगा (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : एन. गोपि
    • प्रकाशन : क्षितिज प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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