कौन से समुद्र कौन से तट कौन सी भूरी चट्टानें और कौन
से द्वीप
कौन से ज्वार-जल ढलानों से टकरा कर बिखरते हुए
और चीड़ की गंध और वनपाखी का गीत कुहरे में से
आता हुआ
आह! लौट आते हैं कौन से स्मृति-चिह्न
ओ मेरी आत्मजा!
वे जो पैनाते हैं कुत्तों के दाँत, यानी—
मृत्यु
वे जो झिलमिल हैं कलरव करते पक्षी के गौरव से, यानी—
मृत्यु
वे जो संतोष की सीढ़ी पर बैठ गए हैं जमकर—यानी
मृत्यु
वे जो पाशविक उल्लास की यातना भोगते हैं, यानी
मृत्यु
निस्सार हो गए हैं, हवा ने उन्हें अवास्तव कर दिया है
चीड़ की गंध और जंगली कलरव के कुहरे
और इस तमाम स्थान पर व्याप्त महिमा ने
किसका है यह चेहरा अस्पष्ट और स्पष्टतर
बाहों का स्पंदन, पहले से धीमा और पहले से तेज़
दिया हुआ या उधार? नक्षत्रों से भी दूरतर और आँख की—
पुतलियों से भी ज़्यादा पास
मंद मर्मर और मंद हँसी पत्तियों में और शीघ्रता करती
पगध्वनियाँ
नींद की पर्त में जहाँ तमाम ज्वारजल घुलमिल जाते हैं
जहाज़ का मुखस्तंभ बर्फ़ से चिटखा हुआ और धूप से
पपड़ाया हुआ रंग
मैंने बनाया था उन्हें, और ख़्याल से उतर गया
और अब याद आया
रस्से जर्जर और पाल गले हुए
एक जून से दूसरे सितंबर के बीच
इस न जानने को बना गया है अर्द्ध-चेतन, अनजान, मेरा
बिल्कुल अपना
जहाज़ के तख़्तों से पानी आता है, झिरी बंद करने की
ज़रूरत है
यह आकार, यह चेहरा, यह ज़िंदगी
जीवित है उस समय-प्रदेश में जीने के लिए जो मुझसे परे हैं :
मुझे विसर्जित करने दो
उस जीवन के लिए अपना यह जीवन, मेरी वाणी उस
अबोले के लिए
जागरूक, होठ खुले हुए, आशा, नए जलयान
कौन से समुद्र कौन से तट कौन से ग्रेनाइट के द्वीप
बहते आते हैं मेरे काष्ठ-यान की ओर
और कुहरे में गाता हुआ वनपाखी
मेरी आत्मजा!
- पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 104)
- संपादक : धर्मवीर भारती
- रचनाकार : टी. एस. एलियट
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1960
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