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अब भी सखि! हँसने पर तू

ab bhi sakhi! hansne par tu

बा. भ. बोरकर

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बा. भ. बोरकर

अब भी सखि! हँसने पर तू

बा. भ. बोरकर

और अधिकबा. भ. बोरकर

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    इस जीर्ण बरगद की शाखें फूटती हैं

    और जलते हुए पाषाण में से

    जमा हुआ पारा बूँद-बूँद गिरता है

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    नसों मे सागर-वीणा रुमझुमती है

    और सपनों पर जल्दी से चढ़ती है

    नाक्षत्रिक गगन की मीनाकारी

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    झर-झर मोतियों की झड़ी बरसती है

    प्राणों का दीपक चमक उठता है

    बत्ती का काजल झर पड़ता है

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    ऐसी हँसी मानो चाँदनी पत्थर में चिन दी हो

    पुरानी व्यथाओं के हीरे जड़ उठते हैं

    रीते क्षणों की सूनी मुद्रिका में

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    शरद् अपने मधुचंद्र से मिलता है

    स्मृतियों का उफ़ान अचानक आता है

    अनुभावों के क्षीर-समुद्र में

    अब भी सखि! हँसने पर तू

    मेरे कवि का बाना जाग पड़ता है

    अमावस के घने अँधेरे में

    ऐसे ही पूर्णिमा प्राणों को मिलती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 587)
    • रचनाकार : बा. भ. बोरकर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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