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विरासत

virasat

अनुवाद : केदार कानन

शिवेंद्र दास

अन्य

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और अधिकशिवेंद्र दास

    जुओं में जुतने से ही सही

    मज़बूत तो हो ही गए हैं मेरे कंधे

    उठा सकता हूँ मैं कोई भी वज़न

    देश या कि बंदूक़।

    मोटरों के पीछे दौड़ते रहने से ही सही

    मैं अब जान तो गया हूँ तेज़ दौड़ना

    मैं पहुँच जा सकता हूँ

    दिल्ली या कि रणथम्भौर।

    बंगाली, आसामी या कि तमिल

    हिंदू, सिक्ख या कि मुसलमान

    कहे जाते रहने से ही सही

    मैं जान तो गया हूँ कि मैं भी हूँ आदमी

    मैं कभी भी माँग सकता हूँ तुमसे

    विरासत के काग़ज़ात।

    बँधे हाथ

    बेवजह गोलियाँ चलाने से ही सही

    मुझे तो गया है निशाना लगाना

    बदल सकता हूँ अब मैं रुख

    कभी भी

    सलामी में उठी बंदूक़ का।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 66)
    • संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
    • रचनाकार : शिवेंद्र दास
    • प्रकाशन : पहल प्रकाशन

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