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मैं सोचता हूँ

main sochta hoon

किशोर कल्पनाकांत

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किशोर कल्पनाकांत

मैं सोचता हूँ

किशोर कल्पनाकांत

और अधिककिशोर कल्पनाकांत

    हम चेष्टा कर रहे हैं

    सिर-पाँवों का ज़ोर लगाकर

    कि उखाड़ दें / दिन के आसमान में रोपी हुई

    सूर्य की किरणों को / जो मर्यादा क़ायम रखती हैं

    और जो कुछ देखें-परखें / वही सच-सच बताएँ!

    हम लगे हैं

    एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर

    कि उखाड़ डालें—

    शुक्ल-परख के बाग़ के भीतर

    चंदा की चाँदनी का घटता-बढ़ता रुख

    जिसकी सुगंध में मिली हुई है

    सौरभ एकाकी / जो सपनों को सहेजे

    जागते लोगों के अंतःकरण को टटोले !

    पर आज तक मुझसे

    उखड़ा किसी अस्तित्व का बाल

    और हम बावरे हो / अपने ही घरों के द्वार भूल गए!

    पराई ड्योढ़ी जानकर

    अपशकुन बनाने आरंभ कर दिए

    क्योंकि / ख़ुद के पाँव भूमि से उखड़ते

    एक-दूसरे की अंटियों में उलझते

    लड़खड़ाते सँभल नहीं पाए।

    अपने-आप चलती रहती है हवा

    जिससे पनपते, फूलते, फलते

    ऋतु-ऋतु के गाछ-रूख

    अपने-आप ही, उठ आती, खमखार मचाती

    घनघोर आँधी / टूटने वाली डालें टूट जातीं।

    सीधी डाली जातीं, सड़ी-गली सीढ़ियाँ!

    हम आँधियों के बेटे नहीं

    फिर से उखाड़ने-पछाड़ने का हमारा हौसला

    विचारों को लगी हुई दीमक!

    'मैं सोचता हूँ' को

    हम आज तक कभी सोच नहीं पाए!

    कौन जाने! कब उगे-उखड़े

    अस्तित्व के गाछ-रूख

    जंगी,कई सदियों के

    बरसाती, कई कौआ-रोटी!

    आओ! अकेले-अकेले हम चलें

    तरस खाएँ / अपने-आप पर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 41)
    • संपादक : नंद भारद्वाज
    • रचनाकार : किशोर कल्पनाकांत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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