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मैं पृथ्वी के

main prithvi ke

चंचला पाठक

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चंचला पाठक

मैं पृथ्वी के

चंचला पाठक

और अधिकचंचला पाठक

    मैं पृथ्वी के

    अपठित महाकाव्य का

    पारायण खंड हूँ प्रियंक!

    यहीं, इसी क्षेत्र पर

    आम्रवृक्ष की सोर

    धान के मूल का

    प्रगाढ़ आलिंगन करती है

    उसके गोष्पदी भर जल में

    देखता है आम्रवृक्ष

    अपना प्रतिबिंब

    मिलनोत्सुक सोर

    उतर आती है

    पंकिल माटी में

    सहस्रों भुजाएँ पसार

    और महक उठती है

    जलीए शाकों की

    तीव्र हरायँध में

    स्पर्श की यह महक

    अहिल्या के उस स्पर्श का पुनर्जन्म है प्रियंक!

    जिस स्पर्श से

    पत्थर की देह वर्तित होती है

    पंकिल माटी की कोमलता में

    जीवनोत्सुक!

    सृजन का सामगान गहे...

    जैसे करती हो पारणा एक स्त्री

    कठोर व्रत के अनंतर

    आम्र की कोमल शाख से

    धान की गाभ में

    सुपुष्ट हो रहे अन्नाद ने

    गाढ़ प्रेमानुरक्त हो

    अतिप्रथम चूमा है आकुल आम्र-सोर को

    मैं पृथ्वी के

    इसी अपठित महाकाव्य का

    पारायण खंड हूँ प्रियंक!

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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