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माँ और बाबू

maan aur babu

अनादि सूफ़ी

अन्य

अन्य

अनादि सूफ़ी

माँ और बाबू

अनादि सूफ़ी

और अधिकअनादि सूफ़ी

    बाबू

    जब वह जीवित था

    सोता था स्नेह सबका

    बनकर रखैल

    निज स्वार्थों के बिस्तर में

     

    गहरी नींद जब सो वह गया है

    तो फूट पड़ा सोता है

    सोती संवेदनाओं का

    हर तरफ़ क्रंदन है, शोर है

    सर्वाधिक दुखी दिखने की होड़ है

     

    इन सबसे परे

    इंद्रधनुष की कौंध में

    हरदम चमकता है

    आँगन के बीच में

    उपेक्षित तुलसी का एक बिरवा

    जिसमें

    मेरे साथ जीती हैं

    ‘बाबू’ की यादें

    उम्मीदें जीवन की।

     

    माँ

    यहाँ से वहाँ घूमते

    शहर-गाँव नापते

    मंदिरों की ख़ाक छानते

    भटकन में जीवन तलाशते

    माँ जब थक जाती है

    थोड़ा सुस्ताने को घर आती है

    फिर खोलती है

    अद्भुत कथाओं के अंतहीन पिटारे

    सुनाती है पुरी की शाँति

    पहाड़ों की पवित्रता और अयोध्या की भ्रांति

    फिर बद्रीनाथ न जा पाने कि कसक बताते-बताते

    जाने कब और कैसे बताने लगती है

    बाबू के बारे में

    जो हो गया था बूढ़ा समय से पहले

    कि कैसे बिके थे धान के खेत और सोने के ज़ेवर

    भाइयों की पढ़ाई में

    कि कैसे एक भरे-पूरे घर में

    ‘माँ’ बन गई थी एक ‘स्त्री-उपेक्षिता’

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनादि सूफ़ी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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