कोरोना में किचेन

korona mein kichen

श्रीप्रकाश शुक्ल

श्रीप्रकाश शुक्ल

कोरोना में किचेन

श्रीप्रकाश शुक्ल

 

त्नी सुनीता के लिए

एक ऐसे समय में जहाँ बाहर कोयल कूक रही है
और भीतर तुम्हारा यह कूकर
मैं मदद करना चाहता हूँ
और तुम हो कि खिसिया रही हो

जब-जब घुसता हूँ रसोईघर में
जब-जब सोचता हूँ बेलन उठा ही लूँ
छिली हुई मटर और आलू को छौंक ही दूँ आज
तुम दौड़ी चली आती हो

फैलाने, बिखराने, लीपने, पोतने के साथ
तहस-नहस करने की कई धाराओं के बीच
चालान कर देती हो

सब इधर-उधर कर दिया
कहीं कुछ मिल नहीं रहा
जैसा कुछ बड़बड़ाने लगती हो

माना कि यह तुम्हारा परिसर है
तुमने इसे बहुत मेहनत से सजाया है
तुम्हारे लिए यह तुम्हारे पूजाघर से भी पवित्र है
जहाँ सिर खुजलाना और रोटी बेलना एक साथ संभव नहीं है

इसके साथ इसे भी मानने में कोई हर्ज़ नहीं है
कि अपने प्रेम में तुम इतनी उदार तो हो ही
कि आटा गूँथते समय एक फ़ोटो की इजाज़त दे ही सकती हो
जिसे मैं चावल धोने और सब्ज़ी चलाने की तस्वीर के साथ
तुम्हारे प्रति प्रेम के दस्तावेज़ के रूप में किसी दीवार पर टाँग ही सकता हूँ—

कि प्रेम भी तो एक टँगी हुई तस्वीर ही है
जिसे छूकर यह बताया जा ही सकता है :
मैंने भी इस कठिन समय में कुछ न कुछ तुम्हारा ख़याल रखा ही था!

लेकिन तनिक सोचो भी कि विषाक्त जीवाणुओं से भरे इस संसार में
जहाँ फ़िलहाल कोई भी चीज़ अपनी जगह पर नहीं रह गई है
कुछ कहने को आतुर हुए होंठ
आँखों के एक रूखे इनकार में खुल रहे हों

कोरोना में किचन का व्यवस्थित रहना
कितना उचित है!

ठीक ऐसे समय में
जहाँ नज़दीकियाँ योजन भर की दूरियों में रूपांतरित हो गई हैं
नदियाँ फैलकर समुद्र बन गई हैं
और सड़कें उलट कर आकाश

चम्मच का चम्मच की जगह पड़े रहना
क्या हमारे प्रेम का ठहर जाना नहीं है!

जीवन कई बार रखाव में नहीं बिखराव में होता है
स्वाद पकी दाल में ही नहीं
जले भात में भी होता है!

शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिउ...

स्रोत :
  • रचनाकार : श्रीप्रकाश शुक्ल
  • प्रकाशन : पहली बार

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