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कितनी सुंदर होती हैं

kitni sundar hoti hain

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

अन्य

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आकृति विज्ञा 'अर्पण’

कितनी सुंदर होती हैं

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

और अधिकआकृति विज्ञा 'अर्पण’

    कितनी सुंदर होती हैं

    ये पलाशी बातें

    लेकिन कभी-कभी सोचती हूँ

    ज़िंदगी पर कैसे चढ़ता होगा

    पलाश का संतरी रंग

    जिस तरह जंगली विद्वानों ने दे दी

    पलाश को जंगल के आग की उपमा

    उसी तरह जड़ दिया गया जाता होगा

    उपमा की संतरी फ़्रेम में

    आरोप लगाकर कि उसकी सुंदरता

    आग लगाती फिरती है

    पर अचरज होता है मुझको

    वन में फिरते द्विज को देख

    ब्रम्हचर्य के ज्ञान को आकुल

    ढूँढ रहा वो पलाश की लकड़ी

    हाँ! वो ही पलाश जिसकी लकुटी ले

    दीक्षित वह हो जाएगा

    और हाँ! वही पलाश

    जिसकी रंगत को सबने आग कहा

    पर ये बताओ...

    क्या वही पलाश?

    जिससे रंग बनाया जाता है...

    जो रंग हैं वो आग कैसे?

    या जो आग है वो रंग कैसे?

    अरे चुपचाप जाते क्यों हो?

    ठहरो!

    मैं ये भी कहे देती हूँ 

    लड़कियों पर चढ़ गया

    पलाश का संतरी रंग

    और अनजाने में भर गई है

    दहकती-सी आग भी 

    इसीलिए पलाश पौधे से झड़कर

    बिछ गया है भूमि पर

    जिस तरह स्वीकार्यता से इतर लड़कियाँ

    मान ली जाती हैं समाज से अलग

    ख़ैर! मेरी सोहबत तुम्हें पलाश बना दे

    इसीलिए जाते वक्त रंग उतार के जाना।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आकृति विज्ञा 'अर्पण’
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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