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किसके गिर्द नाच रहा हूँ

kiske gird nach raha hoon

अनुवाद : शशिशेख़र तोशख़ानी

ग़ुलाम रसूल संतोष

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ग़ुलाम रसूल संतोष

किसके गिर्द नाच रहा हूँ

ग़ुलाम रसूल संतोष

और अधिकग़ुलाम रसूल संतोष

    उसने कहा उठो और मैं उठा

    उसने कहा चलो और मैं चला

    नाचो कहा उसने और यह मैं नाचने लगा

    उसने कहा सिमटो और सिमट रहा हूँ मैं

    यह भव-सर का नृत्य है त्वरा का

    नाच रहा हूँ मैं यह किसके चारों ओर?

    कौन है जिसकी स्नेहमाया

    बनी मेरा निर्देश, मेरी प्रेरणा

    मेरा वाक्, मेरा वचन?

    नाच रहा हूँ मै यह किसके चारों ओर?

    घर से निकलकर

    अब किस द्वार में प्रवेश करना है

    यह मेरा क्षण आना - क्षण जाना

    किसकी इच्छा नचाती है मुझे?

    नाच रहा हूँ मैं यह किसके चारो ओर?

    मैं मुँह बंद किए मौन रहा

    और सिमटकर बिंदु बन गया

    पंखुरी-पंखुरी झरा

    फूल-सा

    आत्मदाह किया

    तभी पाया यह उल्लास

    नाच रहा हूँ मैं यह किसके चारों ओर?

    समेटकर अपने को

    भीतर कुछ पाना है

    जीवन की उपलब्धि को

    बटोरकर लाना है

    सागर के जल को हिमशिला में बदलना है

    कौन है कर्त्ता? द्रष्टा है कौन?

    दृष्टि से दर्पण को दुराना है

    तभी तो फेंक रहा हूँ

    आँखों से उतार

    लोभ-मोह सब

    काँपते हुए पारे को सहेजकर बताना है

    कौन है कर्त्ता? द्रष्टा है कौन?

    उसने कहा, “देखो” मैंने दर्पण में झाँका

    “कौन है?” पूछा उसने, “देख रहा हूँ” मैं बोला

    “कहो”, कहा उसने और मैं हिमशिला-सा पिघल गया

    उसने कहा समेटो और मैं समेट रहा हूँ

    हाथ का सहारा दे

    कंधे पर नदिया का पानी ले जाना है

    कौन है कर्त्ता? वक़्ता है कौन?

    समुद्रों के बीच से बिन-भीगे निकल आना है

    कौन है कर्त्ता? वक़्ता है कौन?

    कातना है अँगीठी-सी सुलगती हवा को

    विचार विचार से कात रहा हूँ

    जितने बल होंगे

    उतना ही पक्का होगा यह धागा

    चेतना बिसारकर

    चैतन्य को जगाना है

    जो है और जो नहीं है

    उसे गीत में लाना है

    कौन है कर्त्ता? वक़्ता है कौन?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 85)
    • संपादक : बालस्वरूप राही
    • रचनाकार : ग़ुलाम रसूल संतोष
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1984

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