किसी साइकिल सवार का एक असंतुलित बयान

kisi cycle sawar ka ek asantulit byan

अष्टभुजा शुक्‍ल

अष्टभुजा शुक्‍ल

किसी साइकिल सवार का एक असंतुलित बयान

अष्टभुजा शुक्‍ल

समय बड़ा नाज़ुक है

किसी को हितुआ समझो

कहीं भी जाओ

दिन बराबर घर चले आओ

रोज़ बरजते रहते हैं परिजन

पहले दुश्मन, दुश्मन की तरह रहते थे

हितैषी, हितैषी की तरह

तब डर नहीं था इतना

अब हितू बनकर कोई

काट सकता है मूड़ी

अपने ही रोएँ का विश्वास नहीं

चरण छूने के लिए झुकने वाला

कोई मानव बम हो सकता है

सरेआम होंठों पर होंठ रख देने वाली

कोई विषकन्या हो सकती है

कलाकार की तरह दिखने वाला

कोई तस्कर हो सकता है

फ़ोटोग्राफ़र, ब्लैकमेलर हो सकता है

फिर भी कुछ लोग

जब उलझ जाते हैं बातों में

या फँस जाते हैं किसी मोह-माया में

या बहक जाते हैं किसी भावना में

तो बिल्कुल भूल जाते हैं वर्जनाएँ

और डर नामक चिड़िया

उलटे सभी को मान लेते हैं हितैषी

वर्जनाओं के बावजूद नियमित

भादों की इस स्याह रात में

लौटता रहा हूँ नौ-दस बजे के लगभग

साइकिल पर सवार

अकेले घर की ओर

अकेला होने पर

जब याद आती हैं वर्जनाएँ

तो जन्म लेने लगता है डर

जितना ही बढ़ता जाता है पहचान का संकट

उतना ही बड़ा होता जाता है डर

सोचता हूँ

क्या सचमुच मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है?

क्या मैं ही हूँ सबसे पिछड़ा, अकेला और अंतिम आदमी?

नहीं, नहीं; कोई कोई होगा मुझसे भी पिछड़ा

और हर आदमी को

अपने से पिछड़े आदमी के बारे में सोचना चाहिए

जो जितना ही पीछे होगा

वह उतना ही होगा घर से दूर और समय से देर

उसके लिए और गहराती जाएगी रात

और बड़ा होगा उसका डर

लेकिन मुझसे भी अधिक वह

सबको मानता होगा हितैषी

मुझसे भी अधिक उलझता होगा बातों में

मुझसे भी अधिक करता हुआ एकालाप

मुझसे भी अधिक फँसता होगा मोह-माया में

बहकता होगा भावना में

और मुझसे भी अधिक मोल लेता होगा संकट

तभी तो मुझसे भी पिछड़ा होगा

और चलता होगा मुझसे भी बाद में रात को

ऐसे में

अपनी ही साइकिल की खिरखिराहट

देती है सांत्वना

कल्पना करता हूँ

कि शायद मेरे भी पीछे

कोई और रहा है साइकिलहा

अकेले में

और अँधेरे में

कल्पना करने से भी

बहुत मिलता है बल

और उससे भी अधिक बल मिलता है

आवाज़ और दूरागत रोशनी से

भले ही वह आवाज़ अपने निःश्वास की हो

अथवा अपनी ही साइकिल की खिरखिराहट

और रोशनी जुगनुओं की हो या बिजली की चमक की

साथ का बल

बड़ा होता है

लेकिन उससे भी बड़ा होता है

विरोध का बल

कभी-कभी हम

अपने ही साथ नहीं होते

बल्कि अपने ही विरोध में होते हैं

हम तभी तक जीवित होते हैं

जब अपने साथ या विरोध में होते हैं

निस्संगता हमें मार डालती है

कल्पना हमें एक से दो करती है

और हमारा डर हरती है

मुझ साइकिलहा से

उड़ते-उड़ते टकराता है एक जुगनू

और बैठ जाता है हत्थे पर

जड़े हुए नग की तरह

आदिवासी की हँसी की तरह

जुगनू की रोशनी से

रास्ता देखने में कोई सहायता नहीं मिलती

फिर भी ज़िंदगी के अँधेरे में

एक आँचरहित रोशनी से अधिक प्रिय

और बड़ा साथी दूसरा कोई नहीं हो सकता

रोज़ाना की इस आवाजाही में

इधर कोई पाँच साल से

बूढ़े खुलकर खाँसते नहीं

बच्चे खुलकर रोते नहीं

बकरियाँ खुलकर मिमियाती नहीं

गायें खुलकर डकारती नहीं

झींगुर खुलकर झनझनाते नहीं

और गिरगिट तक दबे पाँव चलते हैं

सबकी घिग्घी बँधी हुई है

हिरनी हल में नधी हुई है

सिरों पर ईंटों की

छोटी-छोटी खम्हियाँ जोड़े

चंदन चर्चित जगन्नाथ की मूर्तियों की तरह

भट्ठों पर दौड़ते राँची के मज़दूर

हर खेप के बदले

कौड़ी इकट्ठा करते-करते

अपने अपने टिनावास त्यागकर

वतन को चले गए हैं

कुक्कुरों और कामातुरों के

हमवत बन गए हैं उनके आवास

है तो यह भादों का शुक्ल पक्ष

लेकिन मेघों का घटाटोप

लगातार स्याह कर रहा है रात को

बाग कोयले का पहाड़ लगती है

परछाईं भी अपने साथ नहीं

चंद्रमा का मिन्टल कट रहा है धीरे-धीरे

बुझ रही है पंचलाइट

काला होता जा रहा है जारी किया गया श्वेतपत्र

शक की सुई,

जासूसी कुत्ते

और मेटल डिटेक्टर तक हैरत में हैं

कि है तो कहीं ज़रूर

लेकिन कहाँ है डर

यह मेरी अपनी ही साइकिल है

जिस पर मैंने खुदवाया है अपना नाम

या कोई कालरथ?

ये हैंडल है या यमराज के भैंसे की सींग

जिसे पकड़कर मैं चला रहा हूँ?

ये जुगनू है या किसी कंप्यूटर की जलती बटन?

अरे! घर पहुँचते-पहुँचते

मेरे पहिए के नीचे चला गया जुगनू

मुझे सुरक्षित पहुँचा कर घर

राह का साथी गया मर

लेकिन कुछ नहीं कर सकता

बस, दो मिनट का मौन!

स्रोत :
  • रचनाकार : अष्टभुजा शुक्ल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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