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‘कि’-‘सान’

‘ki’ ‘saan’

यतीश कुमार

अन्य

अन्य

यतीश कुमार

‘कि’-‘सान’

यतीश कुमार

और अधिकयतीश कुमार

    भाषा से पहले था वह

    पर बालियों की भाषा भी बुनी उसी ने

    और फिर लरज उठा

    सपनों का गीत-संगीत

    अलहदा रहा वह जो ओस से बुनता रहा सुबह

    जबकि नमकीन ओस उसकी पीठ से उग

    दहकते सीने का ईंधन बनाती रही

    और यूँ हिम-बिंदु से नीचे उतरकर

    प्रेम करना सीख लिया उसने

    युग बीता और भूख का डंक

    अपना दायरा बढ़ाता रहा

    और वह है कि सपनों की चाह में

    धरती के हर उस हिस्से को खोदता रहा

    जिसमें बची रही जिजीविषा

    आज शब्द की लुकाछिपी

    कुछ ऐसी है

    कि मैं लिखना चाहता हूँ प्रजातंत्र

    और वह राजतंत्र में बदल जाता है

    अब देखता हूँ जहाँ लिखा है किसान

    वहाँ मज़दूर उभरने लगते हैं

    आज भी वही युगों पुरानी कुल्हाड़ी

    अपनी सान तेज़ कर रही है

    और विडंबना यह है

    अधकटा ‘कि’ प्रश्नचिह्न बरगद से लटक रहा है

    ज़मीन पर छटपटाता है

    सत्य के साथ ब्रह्मराक्षस

    और भोथराया थका ‘सान’ देख

    समय मुस्कुरा रहा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : यतीश कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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