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उद्भव सिंह शांडिल्य

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और अधिकउद्भव सिंह शांडिल्य

    व्यामोह के अपरिग्रह बाद भी हृदय दग्ध ही है मेरा।

    आर्त्त हृदय से सुमिरता हूँ तुम्हें,

    दिन-रात,प्रतिपल, प्रतिक्षण।l

    हृत्पिंड में आकार लेते हृदय गति का

    प्रत्येक स्पंदन तुम्हारे लिए है।

    ध्यान के समय दोनों आँखों के बीच

    आंशिक साक्षात्कार करता हूँ तुम्हारा,

    उस अस्थिर एवं हिलते-डुलते प्रदीप्त भूरे बिंदु में।

    फिर भी क्यों इतने अगम हो तुम?

    तुम्हारे तीन पगों का विस्तार,

    स्वरूप बदल लेने की अद्वितीय कला,

    समस्त जीवों में अपने रूप-संघटन की भिन्न चेतना,

    इन सभी से अभिमुख होने हेतु

    स्व समर्पण के चरम बिंदु पर हूँ मैं अब।

    और पूर्ण आसरा है मुझे अपनी साधना पर

    कि वह तुम्हें मुझ तक खींच लाएगी॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : उद्भव सिंह शांडिल्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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