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कवि 1970

kawi 1970

धूमिल

अन्य

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धूमिल

कवि 1970

धूमिल

इस वक़्त जबकि कान नहीं सुनते हैं कविताएँ

कविता पेट से सुनी जा रही है आदमी

ग़ज़ल नहीं गा रहा है ग़ज़ल

आदमी को गा रही है

इस वक़्त जबकि कविता माँगती है

समूचा आदमी अपनी ख़ुराक के लिए

उसके मुँह से ख़ून की बू

रही है

अपने बचाव के लिए

ख़ुद के ख़िलाफ़ हो जाने के सिवा

दूसरा रास्ता क्या है?

मैं आपसे ही पूछता हूँ

जहाँ पसीना पास से अधिक बदबू

देता है

अपना हाथ खोकर

चिमनी के नीचे खड़ा है

निहत्था मजूर

वहाँ आप मुझे मजबूर क्यों करते हो?

कविता में जाने से पहले

मैं आपसे ही पूछता हूँ

जब इससे चोली बन सकती है

चोंगा;

तब आपै कहो—

इस ससुरी कविता को

जंगल से जनता तक

ढोने से क्या होगा?

आपै जवाब दो

मैं इसका क्या करूँ?

तितली के पंखों में पटाखा बाँधकर

भाषा के हलक़े में

कौन-सा गुल खिला दूँ?

जब ढेर सारे दोस्तों का ग़ुस्सा

हाशिए पर

चुटकुला बन रहा है

क्या मैं व्याकरण की नाक पर

रूमाल लपेटकर

निष्ठा का तुक

विष्ठा से मिला दूँ?

आपै जवाब दो

आख़िर मैं क्या करूँ?

सुविधा की तहज़ीब से बाहर

जहाँ चौधरी अपना चमरौधा

उतार गए हैं

कविता में

वहीं कहीं नफ़रत का

एक डरा हुआ बिंदु है

आप उसे छुओ;

वह कुनमुनाएगा

आप उसे कोंचो

वह उठ खड़ा होगा

लेकिन एक ज़रूरतमंद चेहरे के अलावा

वह धूमिल नहीं—

एक डरा हुआ हिंदू है

उसके बीवी है

बच्चे हैं

घर है

अपने हिस्से का देश

ईश्वर की दी हुई ग़रीबी है

(यह बीवी का तुक नहीं है)

और सही शब्द चुनने का डर है

मैं एक डर चुनता हूँ

सबसे हल्का

सबसे बारीक़

सबसे मुलायम

कम-अज़-कम जिससे मैं ख़ुद को बाँध सकूँ

जुआ तोड़कर भागते हुए शब्दों को

कविता में नाँध सकूँ

बहरहाल, मैं एक डर चुनता हूँ

मगर उसे बाज़ार में रखने से पहले ही—

घर में बीमार बच्चे का

‘फटे हुए दूध-सा रोना’ सुनता हूँ

बच्चा क्यों रो रहा है?

मैं चुपचाप उठकर रसोईघर में जाता हूँ

और पूछता हूँ ‘क्या हो रहा है’

यह जानते हुए भी कि कई दिनों बाद

भूख का ज़ायका बदलने के लिए

आज कुम्हड़े की सब्ज़ी पक रही है

पत्नी का उदास और पीला चेहरा

मुझे आदत-सा आँकता है

उसकी फटी हुई साड़ी से झाँकती हुई पीठ पर

खिड़की से बाहर खड़े पेड़ की

वहशत चमक रही है

मैं झेंपता हूँ

और धूमिल होने से बचने लगता हूँ

याने बाहर का ‘दुर-दुर’

और भीतर का बिल-बिल होने से

बचने लगता हूँ

आप मुस्कुराते हो?

‘बढ़िया उपमा है’

‘अच्छा प्रतीक है’

‘हें हें हें! हें हें हें!!!’

‘तीक है—तीक है’

और मैं समझता हूँ कि आपके मुँह में

जितनी तारीफ़ है

उससे अधिक पीक है

फिर भी मैं अंत तक

आपको सहूँगा

वादों की लालच में

आप जो कहोगे

वह सब करूँगा

लेकिन जब हारूँगा

आपके ख़िलाफ़ ख़ुद अपने को तोड़ूँगा

भाषा को हीकते हुए अपने भीतर

थूकते हुए सारी घृणा के साथ

अंत में कहूँगा—

सिर्फ़, इतना कहूँगा—

‘हाँ, हाँ, मैं कवि हूँ,

कवि—याने भाषा में

भदेस हूँ;

इस क़दर कायर हूँ

कि उत्तर प्रदेश हूँ!’

स्रोत :
  • पुस्तक : संसद से सड़क तक (पृष्ठ 62)
  • रचनाकार : धूमिल
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2013

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