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कई-कई बार

kai kai bar

प्रदीप्त प्रीत

अन्य

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प्रदीप्त प्रीत

कई-कई बार

प्रदीप्त प्रीत

और अधिकप्रदीप्त प्रीत

    झटके में नींद से उठने के बाद लगता है

    जैसे कोई खींच ले जा रहा हो मुझे मेरे सुख से

    मैं टटोलने लगता हूँ बिस्तर

    कसकर पकड़ लेता हूँ उसका दामन

    जैसे वह तकिया नहीं है, प्रेयसी है।

    जब तक होश सँभालता हूँ तब तक

    साथ छोड़ चुके होते हैं आँसू

    आँखों की कोरों से होकर चले जाते हैं

    चिकनी ढलान की ओर

    अवशेषों को जोड़कर कुछ तो बनाना चाहता हूँ

    बनता कुछ भी, बिगड़ती हुई दुनिया नज़र आती है।

    कोई हो कहीं तो कहे ज़रूर—सब ठीक हो जाएगा

    मेरे ताबूत में बरसों की चुप ममी अब चीख़ने को है

    हज़ार ज़ुबानों से फिसली हुई कविता के सच के लिए

    वन-वन भटकने वालों को

    तुम्हारी झूठी कहानी रास नहीं आती।

    जिन डायरी के पन्नों से तूफ़ान उठता है

    उसी डायरी के बहुत सारे पन्ने ख़ाली रह जाते हैं

    जिन दवातों से लिखे गए महाकाव्य

    उनमें ही कई बार बिना लिखे ही सूखी होंगी स्याहियाँ।

    तुम्हारी आँखों में उमड़ती हैं सागर की लहरें

    मेरी आँखों में है उन्हें देख पाने का धैर्य

    एक दिन चाँद ने आँखों में आँखें डालकर कही थी एक बात

    कई-कई बार ऐसा होता है

    कुछ चीज़ें सामने होती हैं

    फिर भी हमें दिखाई नहीं देती।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रदीप्त प्रीत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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